भगतसिंह भारतीय समाजवाद के सबसे कम उम्र के चिंतक हैं। विवेकानंद, गांधी, जयप्रकाश, लोहिया, नरेन्द्रदेव, सुभाष बोस, मानवेन्द्र नाथ राय और जवाहरलाल नेहरू वगैरह ने समाजवाद शब्द का उल्लेख उनसे बड़ी उम्र में किया। भारतीय क्रांतिकारियों के सिरमौर के रूप में चंद्रशेखर आजा़द से भी ज्यादा लोकप्रिय हो गए भगतसिंह पंजाबी, संस्कृत, हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजी के लेखक विचारक थे।
-कनक तिवारी
वे सूरतें किस देश बसतियां हैं?
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भगतसिंह भारतीय समाजवाद के सबसे कम उम्र के चिंतक हैं। विवेकानंद, गांधी, जयप्रकाश, लोहिया, नरेन्द्रदेव, सुभाष बोस, मानवेन्द्र नाथ राय और जवाहरलाल नेहरू वगैरह ने समाजवाद शब्द का उल्लेख उनसे बड़ी उम्र में किया। भारतीय क्रांतिकारियों के सिरमौर के रूप में चंद्रशेखर आजा़द से भी ज्यादा लोकप्रिय हो गए भगतसिंह पंजाबी, संस्कृत, हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजी के लेखक विचारक थे।
उन्होंने सर्वाधिक लेखन हिन्दी में किया। मार्क्सवाद से प्रभावित होने के बावजूद उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य बनना स्वीकार नहीं किया था। 1928 के आसपास और खासतौर पर सान्डर्स वध के बाद भगतसिंह का भूकम्प इतिहास ने महसूस किया। उनके समर्थक होने के बाद न केवल जवाहरलाल नेहरू जैसे नवयुवक को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया, बल्कि पूर्ण स्वराज्य का नारा कांग्रेस को नेहरू की अध्यक्षता में देना पड़ा।
भगतसिंह अकेले ऐसे योद्धा हैं जिनकी शहादत के पहले महात्मा गांधी से ख्याति किसी कदर कम नहीं थी। यह पट्टाभिसीतारमैया ने अपनी पुस्तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का इतिहास में स्वीकार किया है।
भगतसिंह ने कांग्रेस और क्रांतिकारियों के पारंपरिक नारे ‘वन्दे मातरम्‘ की जगह ‘इंकलाब जिंदाबाद‘ को भारतीयों के कंठ में इंजेक्ट किया। वह नारा क्रांति का प्रतीक बन गया। भगतसिंह ने धार्मिक आस्थाओं के प्रति अपनी प्रतिबद्धता प्रदर्शित करने के लिए ‘अल्लाह ओ अकबर‘, ‘सत श्री अकाल‘ और ‘वंदे मातरम् जैसे नारे उछालने में विश्वास नहीं किया।
उन्होंने गांधी के आह्वान पर स्कूल की पढ़ाई छोड़कर आजा़दी के आंदोलन में खुद को झोंक दिया। साम्यवादी विचारकों मार्क्स, लेनिन, एंजेल्स और प्रिंस क्रॉपाटकिन आदि को पढ़ने के अतिरिक्त भगतसिंह ने अप्टाॅन सिंक्लेयर, जैक लंडन, एम्मा गोल्डमैन, बर्नर्ड शॉ, चार्ल्स डिकेन्स,
और बाकुनिन आदि को भी उतनी ही गंभीरता से पढ़ा था। उन्होंने चौबीस वर्ष से कम उम्र में तीन सौ से अधिक महत्वपूर्ण किताबें पढ़ रखी थीं और शहादत के दिन भी लेनिन की जीवनी पढ़ते पढ़ते फांसी के फंदे पर झूल गए।
भगतसिंह का निर्माण नेशनल काॅलेज लाहौर के प्रिंसिपल छबील दास, द्वारका दास लाइब्रेरी के लाइब्रेरियन राजाराम शास्त्री, महान पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी और उनके मित्रों भगवतीचरण वोहरा, चंद्रशेखर आजाद, सोहनसिंह जोश, सुखदेव, विजयकुमार सिन्हा, शचीन्द्रनाथ सान्याल आदि ने मिलकर किया था।
आश्चर्य है भगतसिंह के साहित्य में विवेकानंद का उल्लेख नहीं है। मार्च, 1927 में भगतसिंह द्वारा स्थापित नौजवान सभा लाहौर में बंगाल के क्रांतिकारी नेता और विवेकानंद के भाई भूपेन्द्रनाथ दत्त को ‘पश्चिम में युवा आंदोलन‘ विषय पर भाषण देने के लिए बुलाया गया था। बंगाल के क्रांतिकारी और कांग्रेस के सभी बड़े नेता तिलक, गोखले, गांधी, नेहरू और सुभाष बोस आदि विवेकानंद से प्रभावित थे।
भगतसिंह पर शायद सबसे अधिक असर अपने चाचा अजीत सिंह का था। बगावत करने की वजह से उन्हें अंग्रेजों ने लगभग पूरे जीवन का देश निकाला दिया था। अजीत सिंह, पिता किशन सिंह, लाला लाजपत राय, प्रिंसिपल छबीलदास, लाइब्रेरियन राजाराम शास्त्री, जवाहरलाल नेहरू और सुभाष बोस का समर्थन करने के बावजूद भगतसिंह के साथ कांग्रेस के सरकारी प्रस्तावों ने न्याय नहीं किया।
भगतसिंह ने हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन नामक क्रांतिकारी संगठन के नाम में सोशलिस्ट नाम का शब्द इस आशय के साथ जोड़ा कि भारत को स्वतंत्रता मिलने पर उसका आर्थिक उद्देश्य समाजवाद होना चाहिए। पांच दशक बाद संविधान में संशोधन द्वारा समाजवाद शब्द जोड़ा गया।
भगतसिंह और साथियों का जीवन धर्मनिरपेक्षता को परवान चढ़ाते बीता। उनका विश्वास था धर्म का राजनीति से लेना देना नहीं होना चाहिए। नास्तिक भगतसिंह को ईश्वर या धर्म की परंपराओं में विश्वास नहीं था। दलित वर्ग के लिए क्रांतिकारी संगठनों के दरवाजे बराबरी के आधार पर खुले थे।
किस्सा है कि मुसलमानों के अलग अलग रूढ़ विश्वासों के कायम रहते झटका और हलाल किस्म के मांस को एक साथ परोसकर खिलाए जाने की घटनाएं भी क्रांतिकारियों के बीच होती रहती थीं।
भगतसिंह का जीवन प्रकाश की तरह उजला और सूरज के ताप की तरह उष्ण था। अध्ययन और अध्यवसाय के बिना क्रांति की कल्पना उनमें नहीं थी। विपरीत राजनीतिक घटनाओं के बावजूद महात्मा गांधी को लेकर बेहद सम्मान भी था। उनके लिए किसान मजदूर और विद्यार्थी क्रांति के आधार थे।
भगतसिंह अनोखे नेता इसलिए थे कि वे किसी लीक पर नहीं चले। उन्होंने भारतीय क्रांति और स्वतंत्रता युद्ध के मूल्य स्थिर और विकसित करने में परंपरावादी राजनीतिशास्त्र का मुखौटा नहीं लगाया। चाहते तो आयरलैण्ड, फ्रांस और रूस की क्रांतियों के जननायकों जैसा रास्ता तलाश सकते थे। उन्होंने वैसा नहीं किया।
भगतसिंह ने रूसी विचारकों को अपने अंतिम दौर में प्रेरणा स्त्रोत बनाया। शुरुआती दौर में आयरलैण्ड के विद्रोहियों से प्रेरणा ग्रहण करते रहे। भगतसिंह ने पूरी तौर पर सशस्त्र क्रांति को खारिज नहीं किया। साफ कहा सशस्त्र क्रांति उस समय ही अनिवार्य विकल्प है, जब जनता पूरी तौर पर क्रांति के नियामक मूल्यों के लिए सुशिक्षित हो।
भगतसिंह सशस्त्र क्रांति को केवल जनता और हुक्मरानों का ध्यान खींचने का माध्यम भर समझते थे। उनके वैचारिक फलसफा में आर्थिक क्रांति करने के लिए सर्वहारा की सार्थक और निर्णायक भूमिका का समावेश था।
भगतसिंह के राजनीतिक उद्देश्य मसलन धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद और अस्पृष्यता उन्मूलन वगैरह संविधान में शामिल तो कर लिए गए हैं। अमल में उनकी लचर स्थिति है। भगतसिंह समर्पित नौजवानों की बड़ी टीम बनाए जाने के पक्षधर थे जो राजनीतिक आदर्शों को यथार्थ में तब्दील कर सके। उनके कई साथी तार्किक दृष्टि से सम्पन्न और उतने ही घनत्व के थे।
विचार और कर्म के समन्वय को ध्रुव तारा बनाकर आकाश में टांक देने की भगतसिंह की बौद्धिक कुशलता उन्हें इतिहास में ईर्ष्या के योग्य बनाती है। बेहद हंसमुख चेहरे को देखकर समझना मुश्किल था कि उनमें बगावत के शोले उबल रहे हैं। वे मृत्युंजय थे। शुरुआत में खतरों से खेलने का रूमानी एडवेंचर भले रहा हो, बाद में भगतसिंह की वैचारिक प्रौढ़ता गाढ़े वक्त में हिन्दुस्तान की आजादी को लेकर बहुत काम आ रही थी।
भगतसिंह को औसत जीवन भी नहीं मिला। असेंबली बम काण्ड में धुएं और गर्द गुबार की अफरातफरी के चलते उनके और बटुकेश्वर दत्त को आसानी से भाग जाने का मौका भी था। असेंबली बम काण्ड क्रांतिकारिता का क्लाइमैक्स था। दरअसल असेंबली में बम नहीं बल्कि क्रांति के अग्निमय शोलों से लकदक वे लाल परचे फेंके। वे किसी भी मुर्दा कौम में बगावत के स्फुलिंग भर सकते थे। वह ब्रिटिश सम्राज्यवाद को भारतीय युवकों की एक प्रतीकात्मक चुनौती थी। उसका समकालीन इतिहास पर वांछित असर पड़ा।
भगतसिंह का दुर्भाग्य है कि अपनी सुविधा के अनुसार उन्हें हिंसक, क्रांतिकारी, कम्युनिस्ट या कांग्रेस के अहिंसा के सिद्धांत का विरोधी बताकर इस अशेष जननायक का मूल्यांकन करने की कोशिश की जाती है। क्रांतिकारियों का उत्सर्ग कच्चे माल की तरह रूमानी क्रांतिकारी फिल्मों का अधकचरा उत्पाद आज नवयुवक पीढ़ी को बेचा जा रहा है। उसके सामने आजादी के बदले अपने देश में बेकारी का सवाल मुंह बाए खड़ा है।
भगतसिंह का असली संदेश किताबों को पढ़ने की ललक और उससे उत्पन्न अपने से श्रेष्ठ बुद्धिजीवियों से सिद्धांतों की बहस में जूझने के बाद उन सबके लिए एक रास्ता तलाश करने की है जिन करोड़ों भारतीयों के लिए कोई प्रतिनिधि शक्ति इतिहास में दिखाई नहीं देती। भगतसिंह इस लिहाज से दुर्घटनाग्रस्त होने के बावजूद इतिहास की दुर्घटना नहीं थे। वे संभावनाओं के जननायक थे। उनसे कई मुद्दों पर असहमति भी हो सकती है लेकिन भगतसिंह से बौद्धिक मुठभेड़ किए बिना सभी तरह की विचारधाराओं का श्रेष्ठि वर्ग आज तक उनसे कन्नी काटता रहा है।
तकलीफदेह सूचना है कि भगतसिंह ने लगभग तीन महत्वपूर्ण पुस्तकें जेल में लिखी थीं जो बाहर पहुंचाए जाने के बावजूद लापरवाही, खौफ या अकारण नष्ट हो गईं। जेल की डायरी उनकी आखिरी किताब है। उसके टुकड़े टुकड़े जोड़कर उनके तेज़दिमाग के तर्कों के समुच्चय को पढ़ा और प्रशंसित किया जा सकता है।
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भगतसिंह के साथ दिक्कत है। हर संप्रदाय, जाति, प्रदेश, धर्म, राजनीतिक दल, आर्थिक व्यवस्था को उन्हें पूरी तौर पर अपनाने से परहेज है। उनके चेहरे की सलवटें अलग अलग तरह के लोगों के काम आ जाती हैं। वे उसे ही भगतसिंह के असली चेहरे का कंटूर घोषित करने लगते हैं। उनका असली चेहरा पारदर्शी, निष्कपट, स्वाभिमानी, जिज्ञासु, कर्मठ और वैचारिक नवयुवक का है। वह किसी भी व्यवस्था की रूढ़ि को लेकर समझौतापरक नहीं हो सकता।
आज भी दुनिया और भारत उन्हीं सवालों से जूझ रहे हैं। उन्हें भगतसिंह ने वक्त की स्लेट पर स्थायी इबारत की तरह लिखा था। साम्राज्यवाद, पूंजीवाद, अधिनायकवाद और तानाशाहियां अपने जबड़े में लोकतंत्र, समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, सर्वहारा बल्कि पूरे भविष्य को फंसाकर लीलने के लिए तत्पर हैं।
भगतसिंह की भाषा पढ़ने पर कुछ भी पुराना या बासी नहीं लगता। वे भविष्यमूलक इबारत गढ़ रहे थे। नए भारत के बारे में सोच की डींग उन्होंने नहीं मारी। जो सोचा वह कर दिखाया। भगतसिंह का ब्रिटिश साम्राज्यवाद से जनसंघर्ष पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड डिस्प्यूट बिल को लेकर हुआ। मजदूरों और कर्मचारियों को किसी भी सरकारी अन्याय के विरुद्ध हड़ताल नहीं करने का अधिकार ब्रिटिश अवधारणा से उत्पन्न हुआ है। हिंदुस्तानी अदालतें मौलिक भारतीय अवधारणाओं की समीक्षा नहीं करतीं। वहां भी भगतसिंह की बौद्धिक गतिशीलता का प्रस्थान बिंदु इतिहास में झिलमिला रहा है जिस तरह आसमान में धु्व तारा।
यक्ष प्रश्न है क्या भगतसिंह और साथियों का हिंसा में विश्वास था? सीधा उत्तर है नहीं। सशस्त्र क्रांति का समर्थन भगतसिंह की थ्योरी में हिंसा का समर्थन नहीं है। सांडर्स की हत्या के तत्काल बाद मिले क्रांतिकारी पर्चे में साफ लिखा था उन्हें एक मनुष्य का खून बहाने में गहरा दुख है। ऐसा वे चाहते भी नहीं थे। शांति मार्च की अगुआई कर रहे लाला लाजपत राय को लाठियों से पीटकर मार डाला गया। उस घटना का बदला बौद्धिक के बदले यौद्धिक तरीके से ही कारगर ढंग से लिया जा सकता था। इससे ही अंग्रेज शासक में खौफ पैदा होता कि स्वतंत्रता संग्राम सैनिकों को वहशी इरादों के साथ मार डालने की कोशिश नहीं करे।
पूरक प्रश्न है लाला लाजपत राय की हत्या का बदला भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भगतसिंह के मुकाबले ज्यादा कारगर ढंग से लिया? इतिहास उत्तर नहीं देता। इसलिए कोई छह महीने बाद भगतसिंह ने बटुकेश्वर दत्त के साथ मौका मिलने पर असेंबली में बम इस तरह फेंका कि किसी को चोट तक नहीं लगे। चाहते तो असेंबली के कुछ सदस्यों को खत्म भी कर सकते थे। बम विस्फोट के बाद उठे धुएं और गर्द गुबार में वे दोनों क्रांतिकारी भाग भी सकते थे लेकिन उन्होंने दोनों काम जानबूझकर नहीं किए।
भगतसिंह चाहते थे और जानते थे कि असेंबली बम काण्ड की वजह से उन्हें फांसी नहीं हो सकती। सांडर्स की हत्या की वजह से जरूर हो सकती है। भगतसिंह न्याय व्यवस्था की ढिलाई से भी परिचित थे। उनका अनुमान होगा कि मुकदमा कम से कम फैसला होने तक कुछ समय तो लगेगा। यह समय वे खुद को और अधिक शिक्षित करने के अतिरिक्त न्यायालय की प्रक्रिया के माध्यम से पूरी दुनिया को भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के एक क्रांतिकारी पक्ष की तरफ भी ध्यान आकृष्ट करना चाहते थे। भगतसिंह जानते थे उनके आंदोलन के कारण कांग्रेस के युवा तत्वों को पार्टी पर पकड़ बनाने में मदद मिलेगी। हुआ भी यही।
भगतसिंह लाहौर जेल में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ बौद्धिक स्तर पर आखरी खंदक की लड़ाई लड़ रहे थे। इतिहास यह सवाल भी पूछेगा यदि कांग्रेस अधिकारिक तौर पर भगतसिंह के आंदोलन का समर्थन नहीं कर पाई तो क्या 1942 का आंदोलन पूरी तौर पर अहिंसक कहा जा सकता है? खुद गांधी ने स्वीकार किया है कि भारत छोड़ो आंदोलन पूरी तौर पर अहिंसक नहीं था।
गांधी ने कहा है भगतसिंह और उनके साथियों की देशभक्ति और आंदोलन को लेकर उनके मन में सम्मान है। देश के नवयुवकों को उन्होंने लेकिन आगाह किया कि वे भगतसिंह के रास्ते पर नहीं चलें। गांधी को स्पष्ट करना चाहिए था कि वे भगतसिंह के कथित यौद्धिक रास्ते की आलोचना कर रहे थे।
भगतसिंह के बौद्धिक रास्ते से उनका इस तरह मतभेद उजागर होना चाहिए था कि देश का हर व्यक्ति अपनी समझ के अनुसार गांधी या भगतसिंह के राजनीतिक विचारों में से एक को चुन सकने के लिए स्वतंत्र होता।
अपने साथियों में समाजवादी विचारों की तरफ सबसे पहले भगतसिंह आकर्षित हुए थे। साथी अजय घोष के अनुसार उन्हें मार्क्सवादी नहीं कहा जा सकता। भगतसिंह ने न्याय व्यवस्था की उन विसंगतियों की ओर ध्यान खींचा था जो आज भी कायम हैं। इसलिए भगतसिंह अदालतों के सामने नतमस्तक नहीं होते थे।
बाकुनिन की पुस्तक ‘दि गाॅड एण्ड द स्टेट‘ का उन पर गहरा असर था। भगतसिंह ने विदेश जाने से इंकार किया था। कम्युनिस्ट पार्टियों ने उन्हें निमंत्रित भी नहीं किया था। ‘भारत का इतिहास‘ (मास्को 1984) नामक पुस्तक में क्रांतिकारियों के आन्दोलन का महत्व कमतर आंकते हुए यही लिखा है कि ‘भूमिगत क्रांतिकारियों की आतंकवादी कार्रवाइयों ने वस्तुतः औपनिवेशिक शासन के खिलाफ किसी जनव्यापी आन्दोलन को जन्म नहीं दिया।‘
यह लगभग आश्चर्यजनक है कि भगतसिंह की शहादत के बाद सबसे पहले 22-29 मार्च 1931 को पेरियार रामास्वामी नायकर ने अपनी पत्रिका ‘कुडई आरसू‘ में संपादकीय लिखा। 1934 में भगतसिंह के प्रसिद्ध लेख ‘मैं नास्तिक क्यों हूं‘ का तमिल अनुवाद छापा। मार्च 1931 में ही भगतसिंह का लेख ‘युवा राजनीतिक कार्यकर्ताओं के नाम पत्र‘ लाहौर के ‘द पीपुल‘ अखबार में छपा।
हिंदी वांग्मय में अपना स्थान सुरक्षित करने के लिए भगतसिंह को कुछ वर्षों इंतजार करना पड़ा। जैनेन्द्र कुमार, अज्ञेय और यशपाल वगैरह के साहित्य में भगतसिंह और क्रांति आंदोलन रेखांकित है। उसे पूरी तौर पर भगतसिंह के व्यक्तित्व का चित्रण नहीं कहा जा सकता। अज्ञेय और यशपाल क्रांतिकारी भी रहे हैं।
भगतसिंह ने आनुषंगिक सवालों को लेकर भी बौद्धिक जेहाद किया था। उस वक्त कानून था यदि किसी व्यक्ति ने अंग्रेजी वेशभूषा पहने हुए अपराध किया है, तो उसे जेल में बेहतर दर्जा दिया जाएगा। भगतसिंह ने अंग्रेजी वेशभूषा तथा फेल्ट हैट पहने अंसेबली में बम फेंका था। इसलिए उन्हें बेहतर दर्जा दिया गया। जेल में भगतसिंह ने इस नियम के खिलाफ ही बगावत की। उन्हें कठोर शारीरिक यातनाएं झेलनी पड़ीं।
जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि 1928 का साल देश में महत्वपूर्ण उथल-पुथल का था। इसमें से भी सबसे बड़ी उथल-पुथल भगतसिंह का भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में एक कद्दावर नौजवान नेता के रूप में उठ खड़ा होना था। पहला सवाल है कि दुनिया के इतिहास में 23, 24 वर्ष की उम्र का भगतसिंह से बड़ा बुद्धिजीवी कोई हुआ है?
भगतसिंह का यह चेहरा नौजवान पीढ़ी के सामने प्रचारित करने का कोई भी कर्म हिन्दुस्तान में सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों सहित भगतसिंह के प्रशंसक-परिवार ने भी नहीं किया।
भगतसिंह की उम्र का कोई पढ़ा लिखा व्यक्ति क्या भारतीय राजनीति का धूमकेतु बन पाया? भगतसिंह का यही चेहरा सबसे अप्रचारित है। लोग भगतसिंह को सबसे बड़ा बुद्धिजीवी कहने में हिचकते हैं।
17 वर्ष की उम्र में भगतसिंह को एक राष्ट्रीय प्रतियोगिता में ‘पंजाब में भाषा और लिपि की समस्या‘ विषय पर ‘मतवाला‘ नाम की कलकत्ता से छपने वाली पत्रिका के लेख पर पचास रुपए का प्रथम पुरस्कार मिला था। भगतसिंह ने 1924 में लिखा था पंजाबी भाषा की लिपि गुरुमुखी नहीं देवनागरी होनी चाहिए।
लोहिया ने कहा था कि रवीन्द्रनाथ टेगौर से मुझे शिकायत है कि ‘गीतांजलि‘ तो आपने बांग्ला भाषा और लिपि में ही लिखी। महात्मा गांधी से भी शिकायत की कि ‘हिन्द स्वराज‘ आपने मातृभाषा गुजराती में लिखी। भगतसिंह जैसे 17 साल के तरुण ने हिन्दुस्तान के इतिहास को रोशनी दी। भगतसिंह जिज्ञासु विचारक थे क्लासिकल विचारक नहीं। विकासशील थे। अपने अंततः तक नहीं पहुंचे थे।
भगतसिंह को इतिहास और भूगोल के खांचे से निकालकर अगर विवेचित करें, तो दो अलग अलग निर्णय हासिल होते हैं। 1914 से 1919 के बीच पहला विश्वयुद्ध हुआ। उसका भगतसिंह पर भी गहरा असर हुआ। राष्ट्रीय राजनीति में धूमकेतु की तरह एक नियामक बनकर उभरने की भूमिका में आए। तब 1928 का वर्ष आया।
1928 हिन्दुस्तान की राजनीति के मोड़ का बहुत महत्वपूर्ण वर्ष है। 1928 से 1930 के बीच ही कांग्रेस की हालत बदल गई। कांग्रेस पहले पिटीशन करती थी। अंग्रेज से यहां से जाने की बातें करने लगी। मजबूर होकर लगभग अर्धहिंसक आंदोलनों में भी अपने आपको झोंकना पड़ा। यह भगतसिंह का कांग्रेस की नैतिक ताकत पर मर्दाना प्रभाव था। कांग्रेस का यह चरित्र मुख्यतः भगतसिंह की वजह से बदला। भगतसिंह इसके समानांतर एक बड़ा आंदोलन खुद भी चला रहे थे।
(गाँधीवादी विचारक-लेखक, छत्तीसगढ़ के पूर्व महाधिवक्ता कनक तिवारी का 6 किश्तों का लेख ,फेसबुक पर पोस्ट पहला और दूसरा भाग, साभार )