विद्याचरण शुक्ल ने कहा था , मैंने सब कुछ अपने मन से किया
आपातकाल में भारतीय प्रेस ने उनसे बेसाख्ता नफरत की, परहेज किया और उन्हें हिटलर के बड़बोले प्रमचार मंत्री गोयबल्स तक की उपाधि से विभूषित किया। यह वही दौर था जिसकी राजनीतिक गलतखयाली के कारण इंदिरा गांधी और संजय गांधी को चुनावों में पूरी पार्टी समेत मुंह की खानी पड़ी थी। इसके बाद भी शाह कमीशन के सामने सबसे पहले विद्याचरण शुक्ल ने कहा था कि मैंने सब कुछ अपने मन से किया है, इंदिरा जी के कहने पर नहीं।
मै मौर्या शेरेटन में अयूब सैयद की गवाही में उनसे हुए भारतीय राजनीति के बारे में लंबे शास्त्रार्थ को भी नहीं भूलूंगा जब उन्होंने मुझसे असहमत होकर अंततः राजीव गांधी को छोड़ा था। मुझे वह दिन भी याद है जब मेरे कहने पर तत्कालीन रक्षा उत्पादन मंत्री विद्याचरण शुक्ल ने अपने सहयोगी इंद्रकुमार गुजराल और महाराष्ट्र के राज्यपाल नवाब अली यावर जंग की शानदार पार्टियां छोड़कर टाइम्स आफ इंडिया के संवाददाता स्वर्गीय सुदर्शन भाटिया के घर मक्के की रोटी और सरसों का साग इसीलिये खाना कबूल किया क्योंकि ये चीजें मैंने कभी खाई ही नहीं थीं।
वैसे तो मुझे कभी जाति विशेष में पैदा होने का अहसास नहीं हुआ, लेकिन उनकी मुद्रा से लगा था कि ऐसा आचरण ब्राह्मण ही कर सकते हैं। जब वह किसी व्यक्ति की अन्य मंत्रियों अधिकारियों वगैरह से सिफारिश करते हैं तो औरों से विपरीत उनकी आवाज में अहसान मानने के बदले आदेशात्मक समझाइश देने का रुख निहित होता है।
आई. ए. एस. के नौजवान कलेक्टरों पर शुक्ल बहुत मेहरबान होते थे। डी. जी. भावे, विजयशंकर त्रिपाठी, नजीब जंग, अजीत जोगी वगैरह कुछ उदाहरण हैं। बाद में इनमें से कई अधिकारियों ने विद्या भैया का हितसाधन नहीं किया।
उन्होंने कहा था कि मुझे अधिक धन कमाना चाहिए। तब ही राजनीति में बेहतर गुंजाइशें बनती हैं। मैंने जवाब दिया था धन कमाने के जीन्स मुझमें नहीं हैं। विद्या भैया ने ठंडेपन से कहा था कि मुझे राजनीति छोड़ देनी चाहिए। राजनीति की जो हालत है उसे देखकर लगता है उनकी सलाह तल्खी में नहीं तर्क की तलहटी से दी गई थी।