इतिहास की सबसे बड़ी शहादत
सिखों के दसवें गुरु, श्री गुरु गोबिंद सिंहजी के परिवार की शहादत को आज भी इतिहास की सबसे बड़ी शहादत माना जाता है. धर्म व आम जन की रक्षा के लिए दी गई.
रजिंदर खनूजा
सिक्ख धर्म को बलिदानी कौम के नाम से जाना जाता है. सिक्खों ने गुरुओं ने कोई मामूली बलिदान नही दिए. हिन्दू सनातन धर्म की रक्षा के लिए दिए गए बलिदान की खातिर ही मुगलों के समय हिन्दू धर्म की रक्षा हो पाई.
सिखों के दसवें गुरु, श्री गुरु गोबिंद सिंहजी के परिवार की शहादत को आज भी इतिहास की सबसे बड़ी शहादत माना जाता है. धर्म व आम जन की रक्षा के लिए दी गई. इस शहादत जैसा दूसरा कोई उदाहरण सुनने या पढ़ने को नही मिलता. श्रद्धावान सिख नानकशाही कैलेंडर के अनुसार, 20 दिसंबर1705 से लेकर 27 दिसंबर 1705 तक, सिक्ख धर्मावलंबी शहीदी सप्ताह मनाते हैं.
इन दिनों गुरुद्वारों से लेकर घरों तक में कीर्तन-पाठ बड़े स्तर पर किया जाता है।कोई खुशियों के कार्यक्रम नही मनाए जाते बच्चों को गुरु साहिब के परिवार की शहादत के बारे में बताया जाता है. साथ ही कई श्रद्धावान सिख इस पूरे हफ्ते जमीन पर सोते हैं और माता गुजरी व साहिबजादों की शहादत को नमन करते हैं.
दरअसल, इसी कड़कड़ाती ठंड के बीच श्री गुरु गोविंद सिंह जी की माता गुजरी और दोनों छोटे साहिबजादों को सरहंद के ठंडे बुर्ज में खुले आसमान के नीचे कैद किया गया था. आज भी इस बात का अनुमान लगते ही शरीर मे सिहरन दौड़ पड़ती है. इतिहास बताता है कि 20 दिसम्बर से 27 दिसम्बर के बीच श्री गुरु गोविंद सिंह जी का पूरा परिवार हिंदुत्व की रक्षा के लिए लड़ते लड़ते शहीद हो गया. दिसम्बर की इस कंपकपाती ठंड में निम्न तारीखों को मुगलों से भीषण युद्ध मे गुरु एवम उनके दो छोटे बालको सहित पूरे परिवार की शहादत एक इतिहास बन गया.
20 दिसंबर : मुगलों ने अचानक आनंदपुर साहिब के किले पर हमला कर दिया. गुरु गोबिंद सिंह जी मुगलों से लड़ना चाहते थे, लेकिन अन्य सिखों ने उन्हें वहां से चलने के लिए कहा. इसके बाद गुरु गोबिंद सिंह के परिवार सहित अन्य सिखों ने आनंदपुर साहिब के किले को छोड़ दिया और वहां से निकल पड़े.
21 दिसंबर : जब सभी लोग सरसा नदी को पार कर रहे थे तो पानी का बहाव इतना तेज हो गया कि पूरा परिवार बिछड़ गया. बिछड़ने के बाद गुरु गोबिंद सिंह व दो बड़े साहिबजादे बाबा अजित सिंह व बाबा जुझार सिंह चमकौर पहुंच गए. वहीं, माता गुजरी, दोनों छोटे साहिबजादे बाबा जोरावर सिंह व बाबा फतेह सिंह और गुरु साहिब के सेवक रहे गंगू गुरु साहिब व अन्य सिखों से अलग हो गए. इसके बाद गंगू इन सभी को अपने घर ले गया लेकिन उसने सरहंद के नवाज वजीर खान को जानकारी दे दी जिसके बाद वजीर खान माता गुजरी और दोनों छोटे साहिबजादों को कैद कर लिया.
22 दिसंबर : इस दिन चमकौर की लड़ाई हुई जिसमें सिख और मुगलों की सेना आमने-सामने थी. मुगल बड़ी संख्या में थे लेकिन सिख कुछ ही थे. गुरु गोबिंद सिंह जी ने सिखों में हौंसला भरा और युद्ध में डटकर सामना करने को कहा. इसके बाद सिखों ने मुगलों से लोहा लिया और उन्हें नाको चने चबवाए.
23 दिसंबर : यह युद्ध अगले दिन भी चलता रहा. युद्ध में सिखों को शहीद होता देखा दोनों बड़े साहिबजादों बाबा अजित सिंह व बाबा जुझार सिंह ने एक-एक कर युद्ध में जाने की अनुमति गुरु साहिब से मांगी. गुरु साहिब ने उन्हें अनुमति दी और उन्होंने एक के बाद एक मुगल को मौत के घाट उतारना शुरू किया। इसके बाद वह दोनों भी शहीद हो गए.
24 दिसंबर : गुरु गोबिंद सिंह जी भी इस युद्ध में उतरना चाहते थे लेकिन अन्य सिखों ने अपने अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए गुरु साहिब जो युद्ध में उतरने से रोक दिया और उन्हें वहां से जाने को कहा. मजबूरन गुरु साहिब को वहां से निकलना पड़ा. इसके बाद वह सिख मैदान में लड़ते हुए शहीद हो गए.
25 दिसंबर : यहां से निकलने के बाद गुरु गोबिंद सिंह जी एक गांव में पहुंचे जहां उन्हें बीबी हरशरन कौर मिलीं जो गुरु साहिब को आदर्श मानती थीं. उन्हें जब युद्ध में शहीद हुए सिखों व साहिबजादों की जानकारी मिली तो वह चुपके से चमकौर पहुंचीं और शहीदों का अंतिम संस्कार करना शुरू किया जबकि मुगल यह नहीं चाहते थे. वह चाहते थे कि चील-गिद्द इन्हें खाएं. जैसे ही मुगल सैनिकों ने बीबी हरशरन कौर को देखा, उन्हें भी आग के हवाले कर दिया और वह भी शहीद हो गईं.
26 दिसंबर : सरहंद के नवाज वजीर खान ने माता गुजरी और दोनों छोटे साहिबजादों बाबा जोरावर सिंह व बाबा फतेह सिंह को ठंडा बुर्ज में खुले आसमान के नीचे कैद कर दिया. वजीर खान ने दोनों छोटे साहिबजादों को अपनी कचहरी में बुलाया और डरा-धमकाकर उन्हें धर्म परिवर्तन करने को कहा लेकिन दोनों साहिबजादों ने ,बोले सो निहाल, सत श्री अकाल’ के जयकारे लगाते हुए धर्म परिवर्तन करने से मना कर दिया. वजीर खान ने फिर धमकी देते हुए कहा कि कल तक या तो धर्म परिवर्तन करो या मरने के लिए तैयार रहो.
27 दिसंबर : ठंडे बुर्ज में कैद माता गुजरी ने दोनों साहिबजादों को बेहद प्यार से तैयार करके दोबारा से वजीर खान की कचहरी में भेजा. यहां फिर वजीर खान ने उन्हें धर्म परिवर्तन करने को कहा लेकिन छोटे साहिबजादों ने मना कर दिया और फिर से जयकारे लगाने लगे. यह सुन वजीर खान तिलमिला उठा और दोनों साहिबजादों को जिंदा दीवार में चिनवाने का हुक्म दे दिया और साहिबजादों को शहीद कर दिया. यह खबर जैसे ही माता दादी माता गुजरी के पास पहुंची, उन्होंने भी अपने प्राण त्याग दिये.
दूसरी ओर दोनों छोटे साहिबजादों की शहादत के बाद ऐसा माना जाता है कि जब सरहिंद शहर में कोई भी उनके अंतिम संस्कार के लिए जमीन छोड़ने को तैयार नहीं हुआ, तो दीवान टोडर मल नाम के एक अमीर हिंदू व्यापारी ने जमीन का एक छोटा सा टुकड़ा 7800 सोने के सिक्के बिछा कर खरीदा और महंगी जमीन मिलने के बाद अंतिम संस्कार किया. इन्होंने ही मुगलों से साहिबजादों के शव छुड़ाए. बाद में, फतेहगढ़ साहिब में इस स्थल पर गुरुद्वारा ज्योति सरूप का निर्माण किया गया. आवश्यक है कि धर्म के महान रक्षक, धर्म की रक्षा के लिए पूरे परिवार शहादत तक पहुचाने वाले श्री गुरु गोविंद सिंह जी के बारे में स्कूलों में भी बताया जाना चाहिए जिससे अपने धर्म की रक्षा के लिए बाल्य पन से ही सिख मिल सके.
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