प्रेम में हिसाब किताब नहीं

प्रेम कुछ मांगता नहीं, सभी कुछ न्यौछावर कर एकाकार हो जाना चाहता है, यही प्रेम की प्रवृत्ति है। प्रेम में हिसाब किताब नहीं होता अतः पाने या खोने के भाव से मुक्त रहना ही प्रेम का गुण है क्योंकि पाने की कामना, वासना को आमंत्रित कर प्रेम को दूषित कर देती है।

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प्रेम कुछ मांगता नहीं, सभी कुछ न्यौछावर कर एकाकार हो जाना चाहता है, यही प्रेम की प्रवृत्ति है। प्रेम में हिसाब किताब नहीं होता अतः पाने या खोने के भाव से मुक्त रहना ही प्रेम का गुण है क्योंकि पाने की कामना, वासना को आमंत्रित कर प्रेम को दूषित कर देती है।

प्रेम

प्रेम प्राणी के समस्त सात्विक भावों का सार तत्व है जो प्राणी को परमानन्द की अनुभूति प्रदान करता है। शास्त्रों में लिखा है ‘प्रेम साक्षात् ईश्वरीय चिंतन है जो प्राणी को प्राणी से जोड़कर एक सुखद एवं शांति-मय समाज की रचना में सहायक होता है। कहा गया है ‘गॉड इज लव’ यह जो लब है वहीं तो प्रेम है। अतः यह सहज ही प्रमाणित हो जाता है कि प्रेम ही ईश्वर की सर्वोच्चता की अनुकृति है। प्रेम शाश्वत, सत्य, विकार-रहित तथा व्यापक होता है। यह मानस को पवित्र तथा अन्तस को संवेदनशील बनाता है। सृष्टि के मूल में तथा निरंतरता के लिए प्रेम की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारक है।

प्रेम, व्यक्ति का व्यक्ति के प्रति एक संवेदनात्मक अनुभूति ही नहीं है अपितु प्रेम के दायरे में व्यक्ति का संपूर्ण परिवेश या पर्यावरण आ जाता है। वस्तुत: यह इतना व्यापक तथा विशाल भावना है कि पशु, पक्षी ही नहीं समस्त जीव भी प्रेम का प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष भावना का अनुभव करते हैं।

तात्पर्य यह है कि माता-पिता, परिवार, परिजन, समाज राष्ट्र, विश्व तथा ईश्वर से भी व्यक्ति प्रेम करता है। इसकी तात्विक पवित्रता असंदिग्ध रूप से विराट है। समस्त साधना, तप, दर्शन अथवा अध्ययन से कहीं ज्यादा सारगर्भित तत्व ‘प्रेम’ है तथा व्यक्ति के लिए यह कितना अधिक महत्वपूर्ण है,|

इसे कवि कबीर ने इस तरह व्यक्त किया है, ‘पोथी पढ़ि पढ़ि जगमुआ, पंडित भया न कोय। ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।’ अर्थ यही है कि आध्यात्मिक चिंतन तथा पौराणिक ग्रंथों के सतत अध्ययन से व्यक्ति जिस साधना या परम पद को पाना चाहता है, उसे तो व्यक्ति सबके प्रति प्रेम भाव रखकर यूं ही प्राप्त कर सकता है। प्रेम अपने आपमें पूर्ण पांडित्य है।

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यूं तो प्रेम को विकार स्पर्श भी नहीं कर सकता किंतु मनोविकारों की क्षमता को भी कम करके नहीं आंका जा सकता। जिस प्रकार धूल से सने दर्पण में व्यक्ति की छवि विकृत दिखती है जैसे ही विकार रूपी वासना, प्रेम की भी दूषित मनोभाव से भर देता है। प्रेम निराकार ब्राह की तरह होता है। प्रेम में प्राप्ति की कल्पना नहीं की जा सकती। प्रेम के अन्त का वह सात्विक चिंतन है जिसमें सिर्फ देना या बांटना ही अभीष्ट है किंतु प्रेम के इस दान में व्यक्ति ने प्रति दान की अपेक्षा को तो यह निश्चित हो जाता है कि प्रेम को वासना का डंक लग चुका है।

प्रेम ही श्रद्धा तथा भक्ति के रूप में परिवर्तित होता है। जिस प्रकार किसी भी अंक में इकाई अर्थात् एक होता ही है जिसके बिना उसक के स्थिर अस्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती. उसी तरह श्रद्धा एवं भक्त या तो दिखाई न दे या गौण प्रतीत हो किंतु बीज रूप में यह विद्यमान रहता है |

प्रेम कुछ मांगता नहीं, सभी कुछ न्यौछावर कर एकाकार हो जाना चाहता है, यही प्रेम की प्रवृत्ति है। प्रेम में हिसाब किताब नहीं होता अतः पाने या खोने के भाव से मुक्त रहना ही प्रेम का गुण है क्योंकि पाने की कामना, वासना को आमंत्रित कर प्रेम को दूषित कर देती है।

सागर मंथन होता है। अमृत को श्री विष्णु ने मोहिनी रूप धारण कर देवताओं में बांट दिया। दाहक-विष, देवताओं तथा राक्षसों के लिए एक समस्या के रूप में था। यह इतना दाहक था कि ब्रम्हाण्ड को जलाकर राख कर सकता था। कोई कुछ भी समझ पाने की स्थिति में नहीं था। महादेव ने पल भर भी तो विलंब नहीं किया। गटागट पी गये उस दाहक विष को तथा नीलकंठ हो गये।

ब्रम्हाण्ड कल्याण के प्रति प्रेम ने उन्हें सर्व पूज्य बना दिया। यह प्रेम का अति तात्विक-स्वरूप है जहां प्रेम ही प्रारंभ है तथाप्रेम ही अंत भी। तभी तो रसखान आगे कहते हैं ‘कमल तंतु सो छीन अरु, कठिन खड्ग की धार, अति सूधौ, टेढ़ौ, बहुरि, प्रेम पंथ अनिवार।’

कमल के डंठल के समान नरम भी प्रेम है तथा तलवार की धार की तरह कठोर भी प्रेम का मार्ग सीधा भी तो कंटकों से भरा हुआ भी। अर्थात प्रेम का पंथ जितना सहज व सरल है उतना ही कठिन भी।

 

छत्तीसगढ़ के पिथौरा जैसे कस्बे  में पले-बढ़े ,रह रहे लेखक शिव शंकर पटनायक मूलतःउड़ियाभासी होते हुए भी हिन्दी की बहुमूल्य सेवा कर रहे हैं। कहानी, उपन्यास के अलावा  निबंध  लेखन में आपने कीर्तिमान स्थापित किया है। आपके कथा साहित्य पर अनेक अनुसंधान हो चुके हैं तथा अनेक अध्येता अनुसंधानरत हैं। ‘ निबंध संग्रह भाव चिंतन  के  निबंधों का अंश  deshdigital  उनकी अनुमति से प्रकाशित कर रहा है |

 

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