संशय, सनक में बदल सकता है
संशय की अधिकता व्यक्ति को मानसिक रोगी बना सकती है तथा संशय, सनक में बदल सकता है। संशय की अधिकता से व्यक्ति में तनाव तथा अवसाद बढ़ने लगता है। व्यक्ति अन्तर्मुखी होकर अपना कुछ भी अप्रिय कर सकता है।'
संशय की अधिकता व्यक्ति को मानसिक रोगी बना सकती है तथा संशय, सनक में बदल सकता है। मनोविज्ञान में लिखा है ‘अधिकांश व्यक्तियों में संशय होता है। यदि संशय सामान्य भ्रम तक सीमित है, तब यह नुकसान देह नहीं है। किंतु संशय की अधिकता से व्यक्ति में तनाव तथा अवसाद बढ़ने लगता है। व्यक्ति अन्तर्मुखी होकर अपना कुछ भी अप्रिय कर सकता है।’
संशय
मनोभावों में संशय की स्थिति मानसिक विकार के रूप में आती है। आत्म-विश्वास में कमी, व्यक्ति के मानस में संशय के रूप में सामने आता है जिससे व्यक्ति की निर्णय लेने की क्षमता या तो चूक जाती है या न्यून हो जाती है। अतः विश्वास यदि प्रकाश का प्रतीक है तो संशय अंधकार का। यह अंधकार ही व्यक्ति को इस सीमा तक प्रभावित करता है कि उसे, सत्य अथवा तथ्य से साक्षात्कार करने से वंचित करता है तथा भ्रम की स्थिति उत्पन्न कर देता है।
अतः शंका, शक, संदेह तथा भ्रम, संशय के ही पर्यायवाची शब्द हैं, ऐसा निर्विवाद रूप से माना जा सकता है तथा इनका प्रभाव इतना प्रबल होता है कि यह सारगर्भित तथ्यों व तर्कों को भी नकारकर व्यक्ति को आत्म-केन्द्रित बनाकर रख देता है। संशयग्रस्त व्यक्ति सकारात्मक सोच से परहेज करता, स्व- कल्पित विश्वास पर दृढ़ रहता है। यह दोष समस्त भावों को निरर्थक समझने लगता है।
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कहा भी गया है ‘शक का इलाज तो हकीम लुकमान के पास भी नहीं है’ इससे यह प्रमाणित होता है कि व्यक्ति मानस के शाश्वत भावों के चतुर्दिक भ्रम का चादर इस सीमा तक लपेट देता है कि मनोभाव ही अकमर्ण्य तथा निष्प्रभावी होकर रह जाते हैं। अत: जिस प्रकार ग्रहण लगने पर सूर्य का प्रकाश बाधित होता है, उसी प्रकार संशय का अंधकार मनोभावों के प्रकाश को व्यक्ति के मानस तथा अन्तस प्रवेश करने से वंचित कर देता है।
ग्रहण तो फिर भी अस्थायी तथा विशेष समय खंड तक प्रभावी रहता है किंतु संशय का प्रभाव अपवाद की स्थिति को छोड़कर स्थायी होता है तभी तो श्रीमद्भागवत गीता में भगवान श्री कृष्ण, ने अर्जुन को समझाते कहा है ‘हे भारत, संशय का विषय मानस के सद्विचारों तथा आस्था को विषाक्त करते हैं। संशय व्यक्ति के मानस को अस्थिर कर उसे तम की ओर प्रेरित करता है ‘ आगे उन्होंने सव्यसाची अर्जुन को इससे बचने के लिए अन्तर्प्रज्ञा तथा आत्म चेतना को सतत जागृत रखने तथा भगवत कृपा प्राप्ति करने का मार्ग चयन करने उपदेश दिया है।
कुछ तत्व-चिंतक व्यक्ति के विचारों में भटकाव या स्थापित मान्यता के प्रति आस्था न रखने को संशय से जोड़कर देखते हैं किंतु महाऋषि कश्यप स्पष्ट शब्दों में संशय को मनोविकार मानते कहते हैं ‘संशय दुर्बल मानसिकता में प्रवेश कर उसे अकृत्य की ओर प्रेरित करता है’ तथा वेद अथवा अध्यात्म मान्य भावों के प्रति विमुख करता है। ‘
ठीक ऐसा ही मनु-स्मृति में भी लिखा गया है जिससे प्रमाणित होता है कि संशय प्रथमतः अन्त: करण में स्थापित विश्वास को प्रभाव शून्य करता है तथा प्रभुत्व स्थापित कर व्यक्ति को भ्रम में जीवन यापन करने को बाध्य करताहै।
संशय, अपने हित-साधन में अपने अनुरूप एक विश्वास को माध्यम बनाता है तथा यथार्थ एवं सत्य को इस पर हावी नहीं होने देता। इसे अपना संशय जन्य विश्वास ही सर्वोपरि प्रतीत होता है। उसकी स्थिति ठीक उस शुतुरमुर्ग की तरह होती है जिसे रेत में सर छुपा लेने पर किसी अन्य के द्वारा न देखे जाने का भ्रम रहताहै या उसकी स्थिति उस टिटहरी चिड़िया की तरह होती है जो इस कल्पित विश्वास के साथ पैर ऊपर कर सोती है कि आसमान के गिरने पर वह पैरों से थाम सके। इस प्रकार, संशय अपने अस्तित्व रक्षा के लिए व्यक्ति को एक विदुषक की तरह रखता है।
मन: चिकित्सक संशय को एक मानसिक व्याधि ही मानते हैं। उनका मत है संशय भ्रम का रूप धारण कर व्यक्ति के मन पर इतना प्रभावी हो जाता है कि मन व्यक्ति के संतुष्टि के लिए ही इंद्रियों को तदानुसार कर्म करने को प्रेरित करता है। चिकित्सा शास्त्र में वर्णित है’ रोग के शीघ्र निदान न होने पर मानसिक सोच पर कब्जा जमा लेता है तो व्यक्ति की इच्छा शक्ति भी इससे प्रभावित होती है। आत्मबल नकारात्मक रूप से प्रभावित होता है जिसका सीधा प्रभाव उसके शारीरिक अंगों पर पड़ता है।
संशय, व कल्पना का चोलीदामन का साथ होता है क्योंकि संशय ग्रसित रोगी व्यक्ति को संशय से निकाल पाना मनोचिकित्सक के लिए अत्यंत कठिन हो जाता है। चिकित्सक सेडेटिव्ह या ट्रंकूलाईजर का प्रयोग इसलिए करते हैं ताकि संशय से प्रभावित रोगी के मानस के उद्दीपन को शांत किया जा सके।
भले ही मनोविकार यथा- काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद तथा मत्सर की तरह भयावहता के लिए संशय चर्चित न हो किंतु मनोभावों को यह अन्य मनोविकारों की तरह शिद्दत से प्रभावित करता है। यह व्यक्ति में मतिभ्रम की स्थिति उत्पन्न कर देता है। मानस को भी यह संकीर्ण तथा अन्तस को भी दूषित कर देता है।
क्रोध आने पर व्यक्ति जान पाता है कि वह क्रोधित हुआ था, या काम-पीड़ा से ग्रस्त व्यक्ति भी अहसास कर लेता है, इसी प्रकार सभी विकारों से युक्त व्यक्ति अपने विकार को जान, समझ पाते हैं, किंतु संशय ग्रस्त व्यक्ति ही नहीं जान पाता कि वह संशय का शिकार होकर सत्य से पलायन कर रहा है क्योंकि संशय का प्रथम सीधा वार विवेक पर ही तो होता है। अतः मन के विकारग्रस्त होने पर विवेक पर उसका प्रभावी नियंत्रण नहीं रह सकता।
संशय की अधिकता व्यक्ति को मानसिक रोगी बना सकती है तथा संशय, सनक में बदल सकता है। मनोविज्ञान में लिखा है ‘अधिकांश व्यक्तियों में संशय होता है। यदि संशय सामान्य भ्रम तक सीमित है, तब यह नुकसान देह नहीं है। किंतु संशय की अधिकता से व्यक्ति में तनाव तथा अवसाद बढ़ने लगता है। व्यक्ति अन्तर्मुखी होकर अपना कुछ भी अप्रिय कर सकता है।’
वैसे भी संशय, व्यक्ति के जीवन की सफलता को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता । यह उसके अन्दर एक काल्पनिक भय उत्पन्न कर देता है जिससे व्यक्ति का स्वयं की क्षमता के प्रति विश्वास घटने लगता है। संशय, मन को कमजोर करता है, इससे आत्म-बल व आत्म-विश्वास भी डगमगाने लगते हैं। चित्त में एकाग्रता नहीं आ पाती तथा व्यक्ति नकारात्मक पक्ष पर ही अधिक विचार करने लगता है।
इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि संशय विकारों की ओर तीव्रता से आकर्षित होता है। विकार भी संशय का सानिध्य पसंद करते हैं। संशय भ्रम का अंधकार फैलाकर प्रथमत: मानस के प्रकाश को प्रभावित करता है पश्चात् अन्तस की पवित्रता को कलुषित करता है। आन्तरिक प्रज्ञा, जागृत विवेक, आत्मबल तथा दृढ़ इच्छा शक्ति से संशय के प्रभाव को समाप्त किया जा सकता है। इसके लिए आवश्यक है कि व्यक्ति में शाश्वत मूल्यों के प्रति आस्था तथा सत्कर्मों के प्रति अनुराग हो ।
छत्तीसगढ़ के पिथौरा जैसे कस्बे में पले-बढ़े ,रह रहे लेखक शिव शंकर पटनायक मूलतःउड़ियाभासी होते हुए भी हिन्दी की बहुमूल्य सेवा कर रहे हैं। कहानी, उपन्यास के अलावा निबंध लेखन में आपने कीर्तिमान स्थापित किया है। आपके कथा साहित्य पर अनेक अनुसंधान हो चुके हैं तथा अनेक अध्येता अनुसंधानरत हैं। ‘ निबंध संग्रह भाव चिंतन के निबंधों का अंश deshdigital उनकी अनुमति से प्रकाशित कर रहा है |