प्रशंसा का परिष्कृत रूप है स्तुति जो देवों को प्रिय होती है
प्रशंसा का परिष्कृत रूप स्तुति है जिसके लिए कहा गया है 'देवों को भी स्तुति प्रिय होती है।' विचार किया जाए तो यह सहज ही प्रमाणित हो जाता है कि शायद ही ऐसा कोई अभागा होगा जिसे प्रशंसा प्रिय न हो।
‘प्रशंसा, इतनी मोहक तथा मीठी होती है कि खाने वाला खाता चला जाता है। उसे इस बात की भी चिंता नहीं रहती कि पचाने की क्षमता उसमें है भी या नहीं? या कहीं वह अपच की स्थिति में रोग-ग्रस्त न हो जाए’
प्रशंसा
प्रशंसा का परिष्कृत रूप स्तुति है जिसके लिए कहा गया है ‘देवों को भी स्तुति प्रिय होती है।’ विचार किया जाए तो यह सहज ही प्रमाणित हो जाता है कि शायद ही ऐसा कोई अभागा होगा जिसे प्रशंसा प्रिय न हो। यह बात अलहदा है कि भले ही सार्वजनिक रूप से वह इसे स्वीकार न करें किंतु उसके अन्तस की कामना प्रशंसा प्राप्त करने की होती है तथा प्रशंसा से वह आन्तरिक शांति एवं प्रसन्नता का अनुभव करता है। वैसे भी व्यक्ति यदि आलोचना या अपमान से व्यथित होता है तो कैसे माना जा सकता है कि वह प्रशंसा के प्रति उदासीन रह सकता है।
हां, जिसने मनोभावों को जय कर लिया है तथा विकार उसके वजूद में हो न हो अर्थात् जिसने स्थित-प्रज्ञता की स्थिति को प्राप्त कर लिया हो वह ही प्रशंसा के प्रति उदासीन रह सकता है किंतु मनोशास्त्री तो कहते हैं ‘दुश्मन या विरोधी के अवचेतन में भी प्रशंसा पाने की कामना रहती है।’
प्रशंसा, व्यक्ति के लिए वशीकरण मंत्र की तरह होता है जिसका वार अचूक होता है। निंदा या अपमान करके जहां हम अपने शुभचिंतकों की संख्या घटाते हैं वहाँ प्रशंसा द्वारा हम सभी को साथ लेने की क्षमता से युक्त हो जाते हैं।
व्यक्ति किसी धर्म का मानने वाला क्यों न हो वह धर्मग्रंथों में अपने इष्ट के प्रति स्तुति ही पाता है। सार्थक राष्ट्र जो व्यक्ति के मनोभावों के अनुकूल हों उस पर विशेष प्रभाव डालते ही हैं अत: उससे सकारात्मक प्रतिक्रिया ही प्राप्त होती है।
यदि कोई कहे कि वह ‘आत्म-प्रशंसा से दूर है’ तो जान लीजिए कि वह न केवल आपसे असत्य कह रहा है अपितु आत्म छल भी कर रहा है। यहां तक कि वह शाश्वत सत्य से पलायन करने का प्रयास कर रहा है। इस प्रकार की अधर्म चेष्टा को हम केवल ढ़ोंग ही कह सकते हैं।
कहा है ‘वाणी ऐसी बोलिए मन सबका लेय जीत’ कदाचित यह ‘कागा किसका घन हरे, कोयल किसको देय, मीठी बोली बोलकर मन सबका हर लेय’ से प्रेरित है। स्पष्ट है कि वाणी की प्रियता सबको अंदर तक प्रभावित करती है। शब्द-शास्त्री जिन्होंने मंत्रों की रचना की है का मत है कि प्रत्येक शब्द में एक विशिष्ट प्रकार की ध्वनि कम्पन्न करने की क्षमता है। विभिन्न शब्द विभिन्न प्रकार के ध्वनि-कम्पन करंगे, यह स्पष्ट है। यह ध्वनि कंपन, श्रवण के द्वारा व्यक्ति के मानस में एक विशिष्ट प्रकार का भाव उत्पन्न करते हैं।
मानस का अर्थ हम विवेक से करते हैं, तब यह कहा जा सकता है कि ध्वनि कंपन के प्रभाव से विवेक भी तदानुसार प्रभावित होता है। विवेक ही समस्त इंद्रियों का संचालन करता है, तो मन जो विवेक से तादात्म्य स्थापित कर निर्णय लेगा, शरीर पर उसके अनुकूल प्रभाव पड़ेगा यह निर्विवाद है। कदाचित इसीलिए वैदिक मान्यता विभिन्न देवों के लिए है। मंत्र जिस प्रकार शब्द-समूह है तो प्रशंसा भी तो शब्द-समूह ही है अतः इसके प्रभाव को कैसे नकारा जा सकता है।
प्रशंसा यदि संतुलित है तो विशेष प्रभावकारी होगी किंतु प्रशंसा यदि कोरी लफ्फाजी है तो नकारात्मक परिणाम देती है। अतः प्रशंसा करना भी एक कला है। प्रशंसा पर समय, काल व परिस्थिति का भी प्रभाव पड़ता है। यह आवश्यक नहीं कि व्यक्ति विपरीत परिस्थितियों में भी प्रशंसा से प्रसन्न हो जाये।
आशय यह है कि प्रशंसा दोनों के व्यक्तित्व से संबंधित होती है अर्थात् प्रशंसा करने वाले का व्यक्तित्व, समय व आशय तथा प्रशंसा पाने वाले की स्थिति तथा मानसिकता। प्रशंसा का उद्देश्य तभी फलीभूत होगा जब दोनों में व्यवहारिक संतुलन की स्थिति होगी।
प्रशंसा औपचारिकता की स्थिति में प्रभाव खो देता है। उसी प्रकार व्यक्ति यह भांप जाए कि उसे प्रभावित अथवा खुश करने के लिए शब्द जाल के रूप में प्रशंसा की जा रही है तब वह प्रत्यक्ष विरोध तो नहीं करेगा किंतु प्रशंसा का प्रभाव-न्यून अवश्य हो जाएगा।
प्रशंसा करते समय इस बात का भी पर्याप्त ज्ञान होना आवश्यक है कि जिसकी प्रशंसा की जा रही है उसमें ब्याज-स्तुति तथा ब्याज निंदा के मध्य अंतर समझपाने की क्षमता है भी या नहीं अन्यथा प्रशंसा का अर्थ भी विस्फोटक हो सकता है। वैसे प्रशंसा उच्च मनोभाव का प्रतीक है।
प्रशंसा करने वाले के मानस व अन्तस में यदि विकारों ने तनिक भी स्थान प्राप्त नहीं किया है तो यह कहा जा सकता है कि छोटे ही बड़ों की प्रशंसा नहीं करते विपरीत इसके उच्च होकर भी प्रशंसा की जा सकती है। इसे उस व्यक्ति को वैचारिक विशालता या विनम्रता के रूप में मूल्यांकन किया जाएगा।
राजतंत्र के दिनों में राजदरबार में चारण या भाट रखने की प्रथा थी। ये राजा की प्रशंसा किया करते थे किंतु उनका उद्देश्य युद्ध के समय राजा में साहस, आत्मबल तथा विश्वास बढ़ाना ही होता था।
जहां तक प्रशंसा का व्यक्ति पर प्रभाव का प्रश्न है तो इस उम्र तक व्यक्ति में इतनी मानसिक समझ तो आ ही जाती है कि वह प्रशंसा तथा ठकुर-सुहाती बात के मध्य भेद कर सके। पहले ही कहा जा चुका है कि प्रशंसा का प्रभाव क्षेत्र व्यापक होता है। सामान्य व्यक्ति की तो बात छोड़िये ऋषि, मुनि, ज्ञानि, ध्यानि, देव, दानव, गंधर्व किन्नर यहां तक ईश्वर को भी प्रशंसा प्रिय होती है।
प्रशंसा व्यक्ति को तत्काल ही प्रभावित करते हैं क्योंकि इससे उसके अहम की तुष्टि होती है। अहम अहंकार का विकराल रूप धारण कर अन्य मानसिक विकारों को भी आमंत्रित कर लेता है। शेख सादी ने कहा है ‘आप एक विकार को आमंत्रित करिए वह अपने पूरे कुनबे के साथ हाजिर हो जाएगा’ अतः व्यक्ति में प्रशंसा सुनने की पात्रता होना आवश्यक है। इस पात्रता से ही उसकी क्षमता का आलंकन किया जा सकता है कि वह प्रशंसा को पचा पा रहा भी है या नहीं?
सामाजिक बंधन की सार्थकता के लिए व्यक्ति का एक दूसरे के प्रति सद्भाव होना आवश्यक है। निश्चित ही सद्भावना को प्रशंसा विकसित करती है|
प्रशंसा के परिपेक्ष्य में यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि चाटुकारिता, प्रियवचन तो हो सकता है किंतु प्रशंसा नहीं। वस्तुत: चाटुकारिता प्रशंसा का निम्न स्वरूप है जिससे यदि व्यक्ति बचता है तो यह उसके लिए हितकर है।
सत्य तो यह है कि जिस प्रकार एक माता को अपना कुरूप से कुरूप शिशु भी सुंदर दिखाई देता है तथा शिशु की किसी के द्वारा आलोचना या अवहेलना सहन नहीं कर सकती वैसे ही अ-गुणी, असंत तथा असत व्यक्ति भी अपने लिए प्रशंसा से की कामना करते हैं। कोई भी व्यक्ति प्रशंसा से चूकना नहीं चाहता। वह स्वयं को होशियार तथा अन्य को बेवकूफ मानता है। व्यक्ति चाहे उसमें कितनी भी खासी क्यों न हो वह तो यही चाहता है कि शेष सभी उसकी प्रशंसा में कसीदें पढ़ें।
एक अत्यंत संपन्न व्यक्ति था किंतु नाटा था। वह बौने की सीमा तक कम ऊंचाई से युक्त था। अत: कुंठित रहता था। एक व्यक्ति को अपनी पुत्री के विवाह के लिए धन की आवश्यकता थी। नाटा धनिक के साथ ही कंजूस भी था। वह किसी से सीधे मुंह बात भी नहीं करता था। सबने उस व्यक्ति को मना किया कि वह आर्थिक सहयोग के लिए उस नाटे केपास कदापि न जायें किंतु उस व्यक्ति के पास अन्य विकल्प भी तो नहीं था।
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वह नाटे के पास पूर्ण आत्म-विश्वास के साथ चला गया। जाते ही नाटे को मुस्कान सहित नमस्कार करते कहा ‘यह क्या सेठ जी, आप हमेशा ही उदास रहते हैं जबकि ईश्वर ने आप पर भरपूर कृपा की है। धन-धान्य से आप परिपूर्ण हैं। इस उम्र में भी आपका स्वास्थ्य अति उत्तम है। कस्बे में ही नहीं दूर-दूर तक धन, संपदा, वैभव तथा मान के लिए आपका नाम लिया जाता है। मैं तो ब्राम्हण हूं अतः घूमते रहता हूं। मैं असत्य क्यों कहूं जबकि सत्य यह है कि जब कभी मुझसे मेरे गृह गांव के बारे में पूछा जाता है तो आपका नाम लेकर लोग कहते हैं ‘अच्छा-अच्छा, वही गाँव जहाँ सबसे बड़े धनी रहते हैं।’
नाटा अपने अन्तस की प्रसन्नता को दबा नहीं पा रहा था। उसके मुख पर एक विशेष चमक आ गई थी तथापि उसने कहा ‘क्या पंडित जी नाटा बनाकर ईश्वर ने मेरे साथ अत्यंत पक्षपात किया है।’ विप्र व्यक्ति ने तपाक से कहा ‘यह तो ईश्वर की विशेष कृपा है सेठ जी, काश! ईश्वर ने यह कृपा मुझ पर की होती, पर मेरा इतना सौभाग्य कहां?’ आगे उसने कहा ‘ अरे पुराणों में लिखा है कि लक्ष्मीजी नाटों पर ही विशेष कृपा करती हैं। यहां तक साक्षात् विष्णुजी ने वामन अर्थात् नाटे विप्र के रूप में अवतार लिया। सेठजी, आप विद्वानों को बुलाकर अपने संशय का शमन कर सकते हैं कि विश्व में जितने भी महान व्यक्ति हुए हैं, वे सभी नाटे कद के थे।’
हिटलर, नेपोलियन, यहां तक हमारे देश के पूर्व प्रधानमंत्री, लालबहादुर शास्त्री भी तो नाटे ही थे। नाटा होना ही महानता का लक्षण है। अब तो नाटे सेठ जी गद्गद थे। प्रशंसा के आलोक ने उनके मुंह को कांतिमय कर दिया था तथा कहना क्या, उस व्यक्ति ने सेठजी से सहजता से वह प्राप्त कर लिया जो उसका उद्देश्य था।
मानस मर्मज्ञ पं. रामकिंकर ने कहा है ‘प्रशंसा, इतनी मोहक तथा मीठी होती है कि खाने वाला खाता चला जाता है। उसे इस बात की भी चिंता नहीं रहती कि पचाने की क्षमता उसमें है भी या नहीं? या कहीं वह अपच की स्थिति में रोग-ग्रस्त न हो जाए’ किंतु संत तथा साधु स्वभाव, प्रशंसा को कभी स्वीकार नहीं करता, कदाचित इसलिए कि उनके मानस में आशंका रहती है कि कहीं प्रशंसा उनकी साधना तथा चिंतन को ही विकारों से युक्त होकर दूषित न कर दें।
छत्तीसगढ़ के पिथौरा जैसे कस्बे में पले-बढ़े ,रह रहे लेखक शिव शंकर पटनायक मूलतःउड़ियाभासी होते हुए भी हिन्दी की बहुमूल्य सेवा कर रहे हैं। कहानी, उपन्यास के अलावा निबंध लेखन में आपने कीर्तिमान स्थापित किया है। आपके कथा साहित्य पर अनेक अनुसंधान हो चुके हैं तथा अनेक अध्येता अनुसंधानरत हैं। ‘ निबंध संग्रह भाव चिंतन के निबंधों का अंश deshdigital उनकी अनुमति से प्रकाशित कर रहा है |