राजनीति का धर्म और धर्म की राजनीति ?
राजनीति का धर्म और धर्म की राजनीति के बीच संतुलन बिठाना इस वक्त भारतीय लोकतंत्र के लिए सबसे चुनौती भरा काम है। राजनीति के नाम पर तमाम वो चीजें राजनीति में की जा रही हैं, जो राजनीति के दायरे से बाहर होती हैं।
राजनीति का धर्म और धर्म की राजनीति के बीच संतुलन बिठाना इस वक्त भारतीय लोकतंत्र के लिए सबसे चुनौती भरा काम है। राजनीति के नाम पर तमाम वो चीजें राजनीति में की जा रही हैं, जो राजनीति के दायरे से बाहर होती हैं। धर्म के नाम पर सारी धार्मिक मूल्यों, मर्यादाओं एवं मान्यताओं की धज्जियां उड़ायीं जा रही हैं। धर्म की राजनीति यानि जाति-धर्म, पंथ-सम्प्रदाय के नाम पर वैचारिक दूरियां बढ़ाकर सत्ता हासिल करना हो गया है।
-डॉ. लखन चौधरी
धर्म की राजनीति के नाम पर सामाजिक विरोधाभास उत्पन्न करके वोट हासिल करना हो गया है, जबकि धर्म की राजनीति के व्यापक अर्थ हैं। दरअसल में धर्म की राजनीति से तात्पर्य राजनीतिक धर्म के निर्वहन से होना चाहिए। धर्म की राजनीति से तात्पर्य राजनीतिक कर्तव्योें, जिम्मेदारियों, जवाबदेहियों से होनी चाहिए। धर्म की राजनीति से तात्पर्य राजकाज की आर्थिक, सामाजिक, मानवीय एवं नैतिक जवाबदेहियां होती हैं।
धर्म की आड़ में राजनीति को इस तरह से परोसा जा रहा है, मानो धार्मिक मसलों के नाम पर वोट मांगना, सत्ता हासिल करना एवं राजनीति करना हो गया है। धर्म की राजनीति की आड़ में साामजिक समरसताओं की बलि चढ़ाकर ऐनकेन प्रकारेण सत्ता हासिल करना हो गया है, जो कि राजनीति के धर्म के बिल्कुल विपरीत है।
राजनीति का धर्म यह है कि सरकार संवैधानिक एवं लोकतांत्रिक मूल्यों के रक्षार्थ एवं पालनार्थ वह सब कुछ करे जिससे जनमानस की, जनसरोकर की चिंताओं, समस्याओं, परेशानियों का समाधान हो सके। जनमानस की, जनसरोकर के अधिकारों, कर्तव्यों की रक्षा एवं सुरक्षा हो सके। जनता के हकों की रक्षा हो सके।
इस समय राजनीति का धर्म यह है कि सरकारें जनसरोकार से जुड़े शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, महंगाई, बेरोजगारी, प्रदूषण जैसे मसलों पर काम करें। युवाओं, बच्चों, महिलाओं, बेरोजगारों के सहूलियत के लिए नीतियां लायें। संविधान के दायरे में लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापनाओं के लिए नीतियां बनायें। सरकारों का दायित्व है कि प्रत्येक नागरिक के संवैधानिक एवं लोकतांत्रिक मूल्यों, अधिकारों की सुरक्षा सुनिष्चित करें। आज इन सभी मानदण्डों को दरकिनार करते हुए ऐसी राजनीति की जा रही है कि जनसरोकार के मसले ही गायब हैं। जनसरोकार की चिंताएं ही मुख्य धारा से ओझल होकर हाशिए पर जा रही हैं।
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मतदाताओं को रिझा कर, बहला-फुसला कर, भ्रमित कर, उलझा कर जैसे-तैसे वोट हासिल करके सरकार बना लेना, सरकार चलाना राजनीति का धर्म कतई नहीं है। जाति, धर्म, पंथ, सम्प्रदाय जैसे मसलों में जनमानस को गुमराह करके सत्ता हासिल कर लेना राजनीति का धर्म कतई नहीं है। अतीत की पुरानी बातों को कुरेद कर सामाजिक समरसताओं की तिलांजली देकर सत्ता पर काबिज हो जाना राजनीति का धर्म कतई नहीं है।
राजनीति का धर्म एक ही है, जनमानस के लिए, जनसरोकर के लिए, जनता के लिए नीतियां बनाना। जनता के दुखदर्दों, पीड़ाओं, चिंताओं, समस्याओं के लिए नीतियां बनाना। जनमानस के अधिकारों के रक्षा के लिए काम करना, राजनीति का धर्म है। जनमानस के विकास, संवृद्धि, प्रगति के लिए जनकल्याणकारी नीतियां बनाना एवं इनका पालन करवाना राजनीति का धर्म है। दुर्भाग्य से आज सब कुछ उल्टे हो रहे हैं। और इससे भी बड़ा दुखद यह कि सरकारें इसे डंके की चोट पर सच साबित करने में लगी हैं कि सरकारें आज जो कर रही हैं, वही सच है।
(लेखक; प्राध्यापक, अर्थशास्त्री, मीडिया पेनलिस्ट, सामाजिक-आर्थिक विश्लेषक एवं विमर्शकार हैं)
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