करियर का  दबाव,  तनाव से बढ़ती आत्महत्याएं

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करियर के इस दबाव एवं तनाव ने आज हमारे बच्चों, युवाओं, नौनिहालों को अवसाद के दलदल में ढ़केलकर इन मासूम जिंदगियों को इतना गुमराह कर दिया है, इतनी दिशाहीन एवं दिशाभ्रमित कर रहा है कि हमारी नई-भावी पीढ़ीयां अपनी जिंदगी ही तबाह करने लगे हैं। देश में दिन-ब-दिन युवा आत्महत्याओं की घटनाएं बढ़ रही हैं, लेकिन हमारी सरकारें, हमारा समाज कागजी खानापूर्ति कर तमाशा देखने में मस्त है।
•डाॅ. लखन चौधरी

कोरोना कालखण्ड की त्रासदियों के बीच तरह-तरह की चिंताओं, कठिनाईयों, समस्याओं, विपत्तियों सेे आम जनमानस के जीवन में ज़हर घुलने की मात्रा, गति एवं दर कई गुना बढ़ गई है। वैसे तो आमजन इसका आदि हो चुका है, इसलिए इससे उसे बहुत फर्क नहीं पड़ता है, लेकिन इन दिनों माहौल एवं वातावरण कुछ अधिक ही ज़हरीला एवं विषाक्त होता जा रहा है।

दुखद एवं दुर्भाग्यपूर्णं आजकल अधिक यह हो रहा है कि परिवेश, वातावरण, माहौल का यह ज़हरीलापन अब हमारे बच्चों, युवाओं, नौनिहालों के जीवन को ग्रसने और डसने लगा है। अब हमारे बच्चों, युवाओं, नौनिहालों की जिंदगी इस ज़हरीलेपन से खत्म होने लगी है।
हमारे विद्यार्थियों को करियर का डर, भविष्य की चिंता इस कदर दहशत और अवसाद में ले जा रही है कि वे अपनी जिंदगी तक दांव पर लगाने को उतारू हो रहे हैं। दिनोंदिन बढ़ती यह प्रवृत्ति जहां बेहद चिंताजनक एवं खतरनाक है, वहीं यह हमारे समाज के लिए भी बड़ा सवाल है कि आखिरकार हमारा समाज क्या कर रहा है ? हमारी सरकारें इन घटनाओं को लेकर कितनी चिंतित एवं संवेदनशील हैं ? इसके लिए समाज और सरकार जिम्मेदार क्यों नहीं हैं ?
करियर के इस दबाव एवं तनाव ने आज हमारे बच्चों, युवाओं, नौनिहालों को अवसाद के दलदल में ढ़केलकर इन मासूम जिंदगियों को इतना गुमराह कर दिया है, इतनी दिशाहीन एवं दिशाभ्रमित कर रहा है कि हमारी नई-भावी पीढ़ीयां अपनी जिंदगी ही तबाह करने लगे हैं।

देश में दिन-ब-दिन युवा आत्महत्याओं की घटनाएं बढ़ रही हैं, लेकिन हमारी सरकारें, हमारा समाज कागजी खानापूर्ति कर तमाशा देखने में मस्त है। बेरहम, दुखद एवं दुर्भाग्यपूर्णं समय में हम लोग जीने को न सिर्फ विवश हैं, बल्कि इन अप्राकृतिक, अनैतिक एवं अनहोनी घटनाओं के साक्षी एवं गवाह भी बनते जा रहे हैं। सरकार एवं समाज की निहायत कायरतापूर्णं घड़ियाली आंसूओं का सैलाब हमारे जनमानस को तनिक भी शर्मसार नहीं कर रहा है।

तथाकथित आधुनिक समाज की इससे बड़ी विडम्बना, विसंगति, विकृति एवं विरोधाभास और क्या हो सकती है ? इसके बावजूद हमारे स्वार्थी समाज और सरकारों को हमारे बच्चों, युवाओं, नौनिहालों की आत्महत्याएं जैसी खबरें भी परेशान नहीं करती है ? या नहीं कर रही हैं ? यह कोरोना कालखण्ड की ही चिंता, त्रासदी है ?

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ऐसी भी बात नहीं है, इसके बावजूद हमारी आंखे नहीं खुल नहीं हैं। यह अलग बात है कि कोरोना संक्रमण की लगातार बढ़ती घटनाओं के बीच इस तरह की घटनाएं आम जनमानस के साथ हमारे बच्चों, युवाओं, नौनिहालों को अधिक सता रही हैं। नामी, अनजान, गुमनाम तमाम तरह के, इसमें सैंकड़ों नाम हर महिने जुड़ते जा रहे हैं, लेकिन इस तरह की दुखद एवं दुर्भाग्यपूर्णं घटनाएं कम होने का नाम नहीं ले रहीं हैं बल्कि बढ़ती ही जा रहीं हैं।
इन घटनाओं को अंजाम देने में, देने के लिए मीडिया की भूमिका की अनदेखी नहीं की जा सकती है। सोशल एवं इलेक्ट्रानिक मीडिया का खेल इस तरह की घटनाओं को हवा देने में बहुत हद तक जिम्मेदार हैं। इसे केवल एक समाचार के तौर पर दिखा कर घटना की इतिश्री कर लेतीं हैं। जबकि इन घटनाओं के मनोवैज्ञानिक पक्षों के साथ विचार करते हुए विद्यार्थियों को साहस देने एवं उनका हौसला बढ़ाने की अधिक आवश्यकता है कि परीक्षाएं जीवन का मात्र एक हिस्सा हैं।
हमारे बच्चों, युवाओं, नौनिहालों की जिंदगी हमारा भविष्य है, हमारे देश का भविष्य है, हमारी धरोहर है, हमारी विरासत है। यह हमारी पूंजी, संपत्ति, एसेट होती है जिसके दम पर भावी विकास का दावा करते हैं, दंभ भरते हैं, सपना देखते हैं। हमारे बच्चे, युवा एवं हमारी नई पीढ़ी हमारी भावी उन्नति, तरक्की, प्रगति एवं संवृद्धि की आधारभूत संरचना होते हैं। हमारी सपनों की उड़ान की ताकत और साहस का आधार होती हैं।

यहां उल्लेखनीय बात यह है कि भारत को छोड़कर यह संपत्ति आज दुनिया के किसी देश के पास नहीं है। अस्सी के दशक में चीन द्वारा ’एक दंपति-एक बच्चा’ नीति अपनाए जाने के कारण आज चीन की पूरी आबादी बूढ़ी होने जा रही है, जिसके कारण चीन परेशान है और अपने देश में युवाओं की संख्या बढ़ाने के लिए उस नीति को खत्म करते हुए जनसंख्या वृद्धि को प्रोत्साहित करने लगा है। यूरोप, अमेरिका सहित तमाम विकसित देश इस समस्या से पहले से ही जूझ रहे हैं, ऐसे में भारत के लिए यह एक बड़ा अवसर है, लेकिन हमारी सरकार और हमारा समाज इस वास्तविकता से अनभिज्ञ है।
अब वह वक्त आ गया है कि हम इस कहावत पर गौर से विचार करें कि दोस्त, किताब, रास्ता और सोच जीवन में सही मिले या सही मिल जाए तो जिंदगी निखर जाती है या जिंदगी निखर सकती है, और सही नहीं मिले तो जिंदगी बिखर जाती है या बिखर सकती है। इस सोच को प्रेरणास्रोत बनाने के लिए विद्यार्थियों को अब उत्प्रेरित करना होगा। उनकी जिंदगियों को किसी भी कीमत पर बचाना ही होगा क्योंकि यही हमारे भविष्य की उम्मीदें हैं।

अब समाज एवं सरकार को इन युवाओं के लिए दोस्त, किताब, रास्ता एवं सोच की भूमिका निभानी होगी, तभी हमारी नई पीढ़ीयां अवसाद से निकल सकेंगी। हमारे युवाओं को यह समझाना होगा कि दोस्त, किताब, रास्ता और सोच का चुनाव हमें करना है। इसके लिए किस तरह का निर्णय लेते हैं ? यह पूरी तरह हम पर निर्भर है। इसलिए निर्णय जिंदगी के लिए लेना है, जिंदगी खत्म नहीं करनी है।
हमारे युवाओं, विद्यार्थियों से मेरी व्यक्तिगत अपील है कि अपनी बहुमूल्य जिंदगी का निर्णय जल्दबाजी में कतई न करें, और यह सोचें कि उनकी यह जिंदगी सिर्फ उनकी नहीं है।

दरअसल में हमारी जिंदगी पर हमारे पालक-अभिभावक, परिवार, समाज, सरकार एवं देश की भी संपत्ति है। जीवन में अक्सर निर्णय लेने की क्षमता की कमी के कारण या निर्णय लेने में विलंब के कारण या निर्णय नहीं ले सकने-पाने के कारण या गलत निर्णय के कारण व्यक्ति के जीवन में अवसाद, निराशा, तनाव, कुण्ठा, हताशा जन्म लेती है, और व्यक्ति अपनी योग्यताओं, क्षमताओं का उपयोग नहीं कर पाता है। जीवन उबाऊ एवं बोझिल बन जाता है, अंततः आत्महत्या का विचार मन में घर करता जाता है। इसलिए सही समय पर उचित निर्णय लिया जाना बेहद जरुरी है।
बच्चों, करियर का मतलब अच्छी नौकरी, अच्छा पेशा, विशिष्ठ व्यवसाय, सम्मानजनक आजीविका, उचित उद्यमवृत्ति जरूर है, लेकिन करियर का अर्थ संघर्षपूर्णं जीवन और सम्पूर्णं एवं समग्र विकास भी है। इसलिए तमाम बाधाओं, चिंताओं, निराशाओं, नकारात्मकताओं के बावजूद सकारात्मकता, रचनात्मकता एवं सर्जनात्मकता का दामन थामिए। जीवन को सार्थकता प्रदान कीजिए। जीवन को समाप्त करने के बजाय जीवन को जीने का जोखिम लीजिए। याद रहे, इतिहास संघर्षों से ही बनता है।

(लेखक; हेमचंद यादव विश्वविद्यालय दुर्ग, छत्तीसगढ़ में अर्थशास्त्र के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं)

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