अमृत महोत्सव : क्या ? कैसे ? किसके लिए ?
वाकई! लोकतंत्र सचमुच सो रहा है। यक्ष प्रश्न है। शायद! लोकतंत्र जागता रहता तो आज राजनीतिक पार्टियां लगातार जनता को बेवकूफ बनाती नहीं रहतीं। लोकतंत्र जागते रहता तो राजनीतिक दलों के नेतागण मतदाताओं को लगातार ठगते नहीं रहते।
वाकई! लोकतंत्र सचमुच सो रहा है। यक्ष प्रश्न है। शायद! लोकतंत्र जागता रहता तो आज राजनीतिक पार्टियां लगातार जनता को बेवकूफ बनाती नहीं रहतीं। लोकतंत्र जागते रहता तो राजनीतिक दलों के नेतागण मतदाताओं को लगातार ठगते नहीं रहते। लोकतंत्र जागने का, जागते रहने का संकल्प दिला पाता तो राजनीतिक दलों के कर्ताधर्ता लगातार जनमानस को गुमराह करने में सफल नहीं हो पाते।
-डॉ लखन चौधरी
फेसबुक पर सचिन कुमार जैन की एक कविता है। कविता कुछ इस प्रकार है कि
मच्छर से मैंने पूछा/तुम तो सत्तारूढ़ नेता न हुए/फिर भी हर वक्त भिनभिनाते रहते हो/खून चुसते रहते हो, बीमारी फैलाते रहते हो/हर कहीं पनप जाते हो/
मच्छर ने उत्तर दिया/मुझे दोष न दो, मुझे क्यों देाष देते हो ?/तुम्हारी बीमारी मुझसे नहीं है/तुम्हारी बीमारी तभी जागती है/जब तुम्हारा लोकतंत्र सो जाता है/
वाकई! लोकतंत्र सचमुच सो रहा है। यक्ष प्रश्न है। शायद! लोकतंत्र जागता रहता तो आज राजनीतिक पार्टियां लगातार जनता को बेवकूफ बनाती नहीं रहतीं। लोकतंत्र जागते रहता तो राजनीतिक दलों के नेतागण मतदाताओं को लगातार ठगते नहीं रहते। लोकतंत्र जागने का, जागते रहने का संकल्प दिला पाता तो राजनीतिक दलों के कर्ताधर्ता लगातार जनमानस को गुमराह करने में सफल नहीं हो पाते।
यह भारतीय समाज के चरित्र का एक उदाहरण है। आजादी के 75 बरस हो गए हैं लेकिन भारत से जातिवादी, धर्मवादी चरित्र की गुलामी गई नहीं है। जातिवादी कुण्ठाओं, वर्जनाओं, पाखण्डों से भारत मुक्त नहीं हुआ है। आजादी के 75 साल बाद भी जातिधर्म से उपर नहीं उठ सकने वाला समाज दुनिया से बराबरी की बातें करता है। स्वयं कुछ नहीं करने लेकिन दुहाई देते रहने से समाज में कितना बदलाव आ जायेगा ? 75 साल तो हो गये, और कितना चाहिए ?
आजादी के 75 साल में शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, आमदनी, अपराध, भष्ट्राचार के मसलों पर समाज के विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता बातें नहीं करना चाहते हैं। केवल वोट दिलाने वाली मसलों को कुरेदते रहते हैं। ताज्जुब की बात तो यह है कि आम जनमानस तो क्या खास बुद्धिजीवी तबका भी इसमें हां में हां मिलाता रहता है।
दरअसल में इसका मतलब क्या है ? यह समझने की दरकार है। क्या इसका गहरा आर्थिक राजनीतिक संदर्भ है। सबसे दुखद तथ्य तो यह है कि इसी व्यवस्था, इसी चरित्र को बदलने का सपना भारत का संविधान देखता और दिखाता है, लेकिन अब उस संविधान को हटाने मिटाने की राजनीति की जा रही है।
यह हमको, आपको तय करना है कि क्या हम न्याय, बंधुता, प्रेम, करुणा, व्यक्ति की स्वतंत्रता, समता, समानता के मानवीय भावों को भारत से विदा करना चाहते हैं ? संविधान की उपेक्षा का मतलब तो यही है। महत्वपूर्णं सवाल कि क्या तिरंगा को लेकर भावनाओं को कुरेदने भर से संविधान की रक्षा हो जायेगी ? लोकतांत्रिक मूल्यों की दुहाई देने भर से संवैधानिक मूल्यों की रक्षा हो पायेगी ?
काश! आजादी के इस अमृत महोत्सव के साथ समाज की समस्याओं, चिंताओं, कठिनाईयों, बदलावों पर भी गंभीरता से विचार किया जाता, तो आजादी का यह महोत्सव अधिक परिणामदायक हो सकता था। कहें कि आजादी का यह अमृत महोत्सव अधिक सार्थक हो सकता था, जब समाज के सभी जातिधर्म, पंथ-सम्प्रदाय के लोगों को साथ लेकर चलते। चिंतन की दरकार बनती है।
सार यही है कि लोकतंत्र को सोने मत दीजिए। अमृत महोत्सव की शुभकामनाएं।
(लेखक; प्राध्यापक, अर्थशास्त्री, मीडिया पेनलिस्ट, सामाजिक-आर्थिक विश्लेषक एवं विमर्शकार हैं)
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