बच्चे स्कूल जाएंगे तो काम कैसे कर पाएंगे?
बच्चे स्कूल जाएंगे तो काम कैसे कर पाएंगे? घन बच्चे ही चलाते हैं| यह कहना है खानाबदोश लोहार रणवीर का| पिथौरा में इन दिनों लोहारों का 5 कुनबा डेरा डाले हुए है|
आज 10 दिसम्बर विश्व मानवाधिकार दिवस है | हर बच्चे को शिक्षा पाने का अधिकार है, लेकिन क्या यह सम्भव हो रहा है ? खासकर खानाबदोश गरीब मजदूर बच्चे अपने अभिभावकों के संग ही खटने को मजबूर हैं | जबकि बच्चे को आगे बढ़ाने की पहली जिम्मेदारी माता-पिता की है|
अंतर्राष्ट्रीय मानव अधिकारों के घोषणा पत्र के मुताबिक हर बच्चे को बेहतर जीवन का अधिकार पाने का हक़ है | राज्य उसके माँ-बाप या अभिभावक को बच्चे के विकास के लिए उचित सहायता मुहैय्या कराएगा | क्या यह सम्भव नहीं है ? लेकिन हम कितने गंभीर हैं अपने बच्चों के प्रति ?
इस तरह के कई सवालों को रखते www.deshdigital.in के लिए रजिंदर खनूजा की रिपोर्ट
बच्चे स्कूल जाएंगे तो काम कैसे कर पाएंगे? घन बच्चे ही चलाते हैं| यह कहना है खानाबदोश लोहार रणवीर का| पिथौरा में इन दिनों लोहारों का 5 कुनबा डेरा डाले हुए है| इस कुनबे के 12 मासूम बच्चों सहित कोई 35 लोग लोहारी करते दिन भर जी जान से जुट कर अपना जीवन यापन कर रहे हैं | इन खानाबदोश बच्चों का बचपन भट्टी में सुलगते कोयले की आंच से झुलसता दिखाई दे रहा है|
दरअसल ये खानाबदोश लोहार बच्चों को 5 साल का होते ही उसे स्कूल भेजने की बजाय उससे भट्ठी पम्प चलाने या हथौड़ा(घन) चलाने का प्रशिक्षण देते है।
नगर के खेल मैदान के पास इन दिनों रात में खुले आसमान के नीचे कड़कड़ाती ठंड में दर्जन भर खाना बदोश लोहार परिवार मच्छरदानी के नीचे सोते नजर आते हैं । सुबह होते ही इन डेरो की महिलाएं डेरे के सामने ही घरेलू एवम कृषि उपयोगी लोहे की वस्तुएं बेचते नजर आते है।
इनके मासूम बच्चे भट्ठी में हवा पहुचाने वाला पंखा चलाते दिखते है वही 10 साल एवम इसके ऊपर के बच्चे काफी कुशलता से भारी भरकम हथौड़ा (घन) चलाते दिखते है। इनमें भी लड़कियों की संख्या अधिक है। जबकि डेरे के युआ एवम बुजुर्ग लोहे को गरम कर उसे औजार की शक्ल देते दिखाई पड़ जाते है।
बच्चों को नहीं पढ़ाना चाहते रणवीर लोहार
एक ओर पूरे देश मे साक्षरता के साथ पढ़ाई लिखाई के लिए लोग अपनी जमा पूँजी भी कुर्बान कर रहे हैं ,वही दूसरी ओर मध्यप्रदेश के सागर जिले के कटंगी के निवासी रणवीर बताते हैं कि वे लोग पूरे वर्ष भर एक स्थान से दूसरे स्थान में डेरा लगाकर लोहे की कुल्हाड़ी ,पौसुल,हसिया,कुदाली सहित सब्जी एवम मटन काटने के छुरे बना कर बेचते हैं| सभी समान 200 से 400 रुपये की दर पर बिकते हैं जिससे उनका रास्ते का खर्च एवम जीवन यापन चल जाता है।
बच्चों की पढ़ाई के सम्बंध में रणवीर ने बताया कि उन्हें पढ़ाई में थोड़ी भी दिलचस्पी नहीं है लिहाजा उनके बच्चे कभी भी स्कूल नहीं गए। उनसे जब इस प्रतिनिधि ने पूछा कि उनके बच्चों को आपके डेरे वाले शहर के किसी आंगनबाड़ी या स्कूल में पढ़ने की इजाजत मिल जाये तो क्या वे बच्चों को भेजेंगे? इस सवाल पर साफ कहा कि बच्चे स्कूल जाएंगे तो काम कैसे कर पाएंगे? घन बच्चे ही चलाते हैं|
एम पी सरकार चावल देती है
डेरे के लोगो ने बताया कि वे साल में एक बार अपने गांव जरूर जाते है।उनके गांव में उनका राशन कार्ड है।जिसमे उन्हें साल भर का 5 किलो प्रति माह प्रति व्यक्ति चावल मिल जाता है।इसके अलावा मध्य प्रदेश सरकार प्रति माह वृद्ध सदस्यों को 600 रुपये प्रतिमाह पेंशन भी देती है।जिससे घर मे छूटे लोगो का खर्च निकलता रहता है। वैसे लॉक डाउन के बाद से इन परिवारों पर आफत आयी हुई है।
इनका कहना है कि खाने के समान में बेतहासा मूल्य वृद्धि और अब हस्त निर्मित कृषि औजार हो या घर की गृहणी हेतु लोहे के औजार हो। इन सभी किस्म के औजारों की बिक्री काफी कम हो गयी है क्योंकि महंगाई का असर इस मेहनत वाले व्यवसाय पर भी पड़ा है।
कड़कड़ाती ठंड में एक कम्बल का सहारा
अपना घर होते हुए भी बरसों से खानाबदोश का जीवन जी रहे उक्त लोहार परिवार के सदस्य चाहे वह नवजात शिशु हो,गर्भवती महिला हो या बुजुर्ग सभी दिन भर तो आसपास घूम कर बिता लेते हैं | परन्तु बरसात की काली डरावनी रात हो या कपकपाती ठंड की रात हो इन्हें खुले आसमान के नीचे ही गुजर बसर करनी पड़ती है।इनकी छत एक मच्छरदानी ही होती है।
बहरहाल, इन खानाबदोश बच्चों का बचपन भट्टी में सुलगते कोयले की आंच से झुलसता दिखाई दे रहा है |