मोह को मनोविकारों का केन्द्र बिन्दु माना जा सकता है क्योंकि विषय भोग अथवा कामना विशेष की प्राप्ति के प्रति प्रबल आसक्ति ही मोह में स्थित होता है जिससे प्राणी काम, क्रोध, लोभ तथा मत्सर का अनुभव करता है। इसी मोह की अधिकता से प्राणी में अहंकार भी आता है।
विषय भोग व कामना के प्रति तीव्र आकर्षण, चित्त अथवा बुद्धि पर आधिपत्य स्थापित कर लेता है तथा विवेक अथवा आत्मा के जागृत भाव को अंधकार से आच्छादित कर देता है तथा प्राणी मतिभ्रम की स्थिति में उसे ही सर्वोपरि मानकर उसके चतुर्दिक एक मन चाहा माया संसार की रचनाकर स्वप्नवत जीने लगता है।
यह स्वप्न प्राणी को जीवनपर्यन्त अपने पाश में बांधे रखता है और जब वह स्वप्न से हटता है तब तक बहुत विलंब हो चुका होता है क्योंकि तब वह मृत्यु के दस्तक को स्पष्ट सुनने लगता है और तीव्रता से अनुभव करता है कि जिस जीवन को उसने जिया वह तो यर्थाथ था ही नहीं।
उसने तो कष्टों को स्वयम आमंत्रित किया था या उसने मानव मूल्यों का तिरस्कार कर अपनी ही गति बिगाड़ ली है। वह ठगा गया है और विडम्बना यह है कि उसे किसी अन्य ने नहीं स्वयम ने ठगा है। प्राणी मूक असहाय तथा अकर्मण्य होकर आगत मृत्यु को थरथराते बदन लिये देखने को विवश हो जाता है।
माता तो साक्षात देवी होती है अत: उसका अलौकिक मोह ईश्वरीय उच्चता की श्रेणी में आता है तथा संतान का मोह लौकिक होने के कारण सांसारिक विकारों से युक्त होकर दुषित होता है। धर्मग्रंथों में जिस मोह का कष्टों का कारण माना गया है तथा मोक्ष प्राप्ति में बाधक माना गया है, वह लौकिक मोह है।
अलौकिक मोह में क्षमा, दया, त्याग, संवेदना, उपकार, कल्याण जैसे गुण होते है तो लौकिक मोह में काम क्रोध लोभ मत्सर तथा स्वार्थ जैसे गुण होते है। दूसरे शब्दों में अलौकिक मोह में विचारों की व्यापकता, विशालता तथा पवित्रता होती है तो लौकिक मोह में विशुद्ध रूप से आत्मकेन्द्रित कामनाजन्य संकीर्णता होती है जिसमें स्व सर्वोपरि होता है उसपर निजत्व प्रभावी होता है क्योंकि इसका विचलन स्वामी की ओर होता है।
यहां स्वामी का अर्थ उस व्यक्ति या प्राणी से है जिसका मोह होता है अत: ऐसा मोह जो अपने स्वामी के लिये ही हो, उससे सर्व कल्याण की अपेक्षा कैसे की जा सकती है किन्तु यह भी सत्य है कि विकार लिये यह मोह अपने ही स्वामी को पतन के मार्ग की ओर ले जाता है और चुकि व्यक्ति सामाजिक प्राणी है अतः उसके विकार ग्रस्त मोह का नकारात्मक प्रभाव समाज पर पडना स्वाभविक है।
माया, मोह जन्य असुरक्षा की भावना व्यक्ति को हमेंशा तनाव ग्रस्त रखती है। तनाव की स्थिति, व्यक्ति में वैचारिक शुद्धता नहीं आने देती अतः वह हमेंशा किसी भी पक्ष का नकारात्मक परिणाम को ही महत्व देने लगता है। इससे व्यक्ति कुंठित रहता है तथा अवसाद से घिरा रहता है और जैसे जैसे वह माया मोह के प्रति ज्यादा आसक्त होता है उसी तीव्रता से आगे अवसाद बढने लगता है। व्यक्ति आत्मकेंन्दित होता जाता है तथा अवसाद की चरम स्थिति में वह आत्म पलायन करने का प्रयास करता है।
मनोचिकित्सा इस अवसाद जन्य पलायन को अत्यन्त घातक मानसिक विकार मानते है तथा उनका यह भी मानना है कि इससे मतिभ्रम की स्थिति आती है तथा व्यक्ति हत्या तथा अन्य जघन्य अपराधों की ओर प्रवृत होता है । व्यक्ति का अवसाद कभी कभी उसे आत्म हत्या को भी प्रेरित करता है।
स्पष्ट है मोह अथवा माया मन को अत्यन्त दुर्बल कर देती है। व्यक्ति की रचनात्मक या क्रियात्मक सोच में मन की अहम भूमिका होती है। यदि मन प्रसन्न तथा स्वस्थ है तो व्यक्ति के क्रिया कलाप भी पवित्र तथा सामाजिक सदभावना युक्त होगें किन्तु मन की विषमता व्यक्ति तथा समाज को ध्वसं करेगी।
अंत मे निष्कर्ष तो यही निकलता है कि मोह माया जीवन की गतिशीलता के लिये आवश्यकता तो है किन्तु इसे मात्र अंगीकृत किया जाना ही पर्याप्त है ताकि व्यक्ति संतुलन व अनुशासन से दूर न हट सके किन्तु जैसे ही वह इन्हें आत्मार्पित कर लेता है वह अपने वजूद को ही इसमे झोंक देता है। उसके जीवन में अशांति असंतुलन तथा असंतोष घर करने लगते है। वह नारकीय बनाने लग जाता है।
वस्तुतः मोह व्यक्ति के लिये दाहक विष की तरह होता है जो उसके निजत्व को समाप्त कर देता है। व्यक्ति को कभी भी विस्मृत नही करना चाहिये कि तमोगुण उसके पतन के मार्ग को प्रशस्त करते है जिससे बचाव का कोई मार्ग सरल नहीं है। मनुस्मृति में लिखा भी है जो जीव को मोह व अज्ञान में प्रवृत करे अप्रकट रहस्यों की ओर आकर्षित करे तथा जिसे तर्क से न माना जा सके उसे ही तमोगुण समझना चाहिये |