यह एक निर्विवाद सत्य है कि प्रागेतिहासिक काल के पूर्व से मानव क्रोध को किसी न किसी रूप में समझने का प्रयास करता रहा हैं। बिजली को कडकना, बादल का गरजना, पृथ्वी का भूकंप या ज्वालामुखी का पटना सूर्य का पूर्व से उदित होना तथा पश्चिम में अस्त होना, पानी का गिरना बर्फ को पिघलना या हवा आंधी के रूप में आना इन सभी प्राकृतिक घटनाओं को दैवीय कोप माना जाता था।
मन का भय इस कोप के मूल रूप में होता था। अतः भय ने कोप को देवत्व प्रदान कर सहयोग की कामना करना प्रारम्भ कर दिया यथा इन्द्रदेव, पृथ्वी, सूर्य, पानी तथा हवा इन्हें कोप शांत रखने के लिये पूजा जाने लगा। देवों के इस क्रम में भय के अनुपात से वृद्धि लगातार होती रही यथा अग्नि, आकाश आदि। इस प्रकार प्रारंभिक स्थिति में प्रकृति ने अपनी विभिन्न क्रियाओं से मानव को कोप अथवा क्रोध जैसे शब्द या भाव से परिचित कराया।
विकास एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया हैं। कोई चाहे या न चाहे विकास का क्रम थम नहीं सकता। नवजात शिशु का रूदन या किलकारियां मारना, बालक, किशोर, युवा, प्रौढ तथा वृद्ध होकर मृत्यु को प्राप्त करेगा ही अर्थात जड़ ही विकास शुन्य होते हैं चैतन्य तो विकास के पथ चलेगें ही।
इसी प्रकार मानव सभ्यता का विकास होता रहा। उसके साथ शिक्षा ने उत्प्रेरक का कार्य किया। तब प्रकृति को समझ पाने की कामना मानव की थी, अब मन को उनके भावों के साथ समझना मानव को रूचिकर लगने लगा। इसके साथ कोप भी शाब्दिक अर्थ में क्रोध के रूप में स्वीकार किया जाने लगा। मानव जैसे जैसे क्रोध को समझने लगा, यह स्पष्ट होता चला गया कि यह तो एक मन का अनिवार्य शाश्वत भाव है जो व्यक्ति के लिये ऊर्जापिण्ड की तरह है।
मनोवैज्ञानिक, क्रोध के संतुलन में व्यक्ति के व्यक्तित्व की पूर्णता मानते हैं अर्थात क्रोध को स्पष्टता दो वर्गों में विभक्त किया गया है। एक तो शाश्वत क्रोध जिसकी अनिवार्यता समाज के संतुलन तथा अनुशासन के लिये आवश्यक है तथा दूसरा तामसी क्रोध जो विध्वसंक होकर व्यक्ति एवं समाज की व्यवस्था को तहस नहस कर सकता है।
अतः क्रोध को सर्व कल्याण के हित में पूर्ण गंभीरता से समझना और क्रिया रूप में परिणित करना आवश्यक है किन्तु यह इतना सरल भी नहीं है क्योंकि क्रोध का स्वरूप वृहत एवं जटिल होता है।
मानसिक दृढता से ही इसे संभव किया जा सकता है। मानसिक दृढता के लिये जागृत विवेक आवश्यक है तथा जागृत विवेक के लिये मनन, चिंतन तथा ध्यान अति आवश्यक है। आज भौतिक युग के इस आपाधापी में व्यक्ति भीड़ में भी अकेला है तथा वह विशुद्ध रूप से आत्म केन्द्रित हो गया है। काम उस पर आधिपत्य जमा चुका है इसलिये उसकी कामनाऐं अनन्त हो गई है। कामनाओं की शत प्रतिशत प्राप्ति कदापि संभव नहीं है। इसलिये उसमें अप्राप्ति के प्रति असंतोष उत्पन्न होता है।
व्यक्ति इस असंतोष को व्यक्त करें या न करें किन्तु ये ही क्रोध के कारण बनते है। व्यक्त करने पर क्रोध प्रकट दिखाई देता है किन्तु व्यक्त न करने पर विभिन्न रूपों में व्यक्ति के व्यवहार के द्वारा प्रकट होता है।
समझौता क्रोध को प्रज्जवलित करता है तो सामंजस्य क्रोध को रूपातरित करता है। । यह अलग बात है कि क्रोध के रूपांतरण से क्रोध का अस्तित्व मिटता नहीं किन्तु निष्प्रभावी हो जाता है।
वैज्ञानिक न्यूटन का तीसरा सिद्धान्त है ” प्रत्येक क्रिया के बराबर और विपरीत प्रतिक्रिया होती है। सामंजस्य और समझौता दोनों ही मानसिक क्रियाएँ हैं। अतः समझौता की प्रतिक्रिया हो किन्तु सामंजस्य की प्रतिक्रिया हो ही नहीं, ऐसा हो नहीं सकता क्योंकि यह विज्ञान सम्मत तर्क नहीं है।
वस्तुतः यदि हम किसी के गाल पर थप्पड़ मारते है तो हमारे हाथ में भी दर्द होता है जबकि मार खाने वाले के गाल पर दर्द होना चाहिये। हमारे हाथ का दर्द गाल की प्रतिक्रिया है। दीवार पर हाथ मारें तेजी से तो हाथ झनझना उठता है किन्तु दीवार पर कोई क्रिया दिखाई नहीं देती जबकि वास्तव में है। क्रोध भी कुछ इसी सिद्धांत पर चलता है।
छत्तीसगढ़ के पिथौरा जैसे कस्बे में पले-बढ़े ,रह रहे लेखक शिवशंकर पटनायक मूलतःउड़ियाभासी होते हुए भी हिन्दी की बहुमूल्य सेवा कर रहे हैं। कहानी, उपन्यास के अलावा निबंध लेखन में आपने कीर्तिमान स्थापित किया है। आपके कथा साहित्य पर अनेक अनुसंधान हो चुके हैं तथा अनेक अध्येता अनुसंधानरत हैं। ‘विकार-विमर्श” निबंध संकलन 44 स्वाधीन चिंतन परक, उदान्त एवं स्थायीभावों का सरस सजीव गद्यात्मक प्रकाशन है। प्रौढ़ चिंतन, सूक्ष्म विश्लेषण एवं तर्कपूर्ण सुसम्बद्ध विवेचन एवं मनोविकारों का स्वरूप निर्धारण उनका रुपान्तरण आवश्यकता आदि पर पटनायक जी का चिंतन दर्शनीय है| deshdigital इन निबंधों का अंश उनकी अनुमति से प्रकाशित कर रहा है |