मद (अहंकार)
मद, अहंकार का पर्यायवाची शब्द है। मद में भ्रांति अहम तथा विवेक शून्यता प्रधान होते है। संशय अभिमान तथा विचारजड़ता इसके सहायक गुण माने गये है। अहंकार अपने अस्तित्व रक्षा में संशय व स्वार्थ को ही रक्षा कवच की तरह प्रयोग करता है। मद अर्थात अंधकार व्यक्ति को आत्मकेंन्द्रित बनाता है। अतः वह स्वयम को सर्वोपरि मानता है। वह उपने समक्ष समस्त को तुच्छ तथा हेय समझने लगता है तथा अर्न्तमुखी स्वभाव से युक्त होकर समाज से अपने को पृथक कर लेता है।
उसमें अतिशय उच्चता की भावना आ जाती है तथा वह समझने लगता है कि केवल उसमे ही स्वामीत्व के गुण है, शेष सभी उसके दास है। इस प्रकार की भावना से वह आत्मभ्रम के जाल में फंसता चला जाता है तथा परपीड़क की तरह व्यवहार करने लगता है। स्तुति उसे प्रिय लगती है तथा सलाह या मार्गदर्शन को वह अपने प्रति अन्यों का षडयंत्र समझने लगता है।
अहंकारी व्यक्ति की अपनी स्व निर्मित धारणाओं की खोल होती है। जिसके अंदर ही वह रहना पंसद करता है। वह इस खोल को ही सब कुछ मानने लगता है तथा इसका द्वार वह स्वयम इतनी क्षमता से बंद रखता है कि किसी के अंदर आने की संभावना ही न रहे।
स्पष्ट है कि अहंकार अपने अस्तित्व रक्षा में संशय व स्वार्थ को ही रक्षा कवच की तरह प्रयोग करता है। अहंकार में काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा मत्सर स्वयमेव चले जाते है। व्यक्ति अंहकार के आगे बौना तथा हास्यापद प्रतीत होने लगता है किन्तु उसकी स्थिति तो उस शुतुरमुर्ग की तरह होती है जो रेत मे सर दबाकर सोचता है कि दुनिया उसे नही देख रही है ।
वस्तुत: व्यक्ति की समाज में पहचान उसके संस्कार युक्त व्यक्तित्व से होती है किन्तु अंहकार अपने साथी विकारों के साथ संस्कार को ही नष्ट कर देता है जिससे व्यक्ति की सामाजिक पहचान ही मिट जाती है।
अतः सदाचार सदविचार संवेदना माननीय मूल्य तथा जीवन चिंतन से वह तादात्मय स्थापित नहीं कर पाता, परिणामस्वरूप कालांतर में वह अवसाद से घिरता चला जाता है। इस स्थिति में वह असुरक्षा की भावना से ग्रसित होकर स्वजनों के प्रति भी भ्रमित हो जाता है।
यह भ्रम उसके एवं समाज अथवा स्वयम के मध्य इतना तीव्र हो उठता है कि समाज व स्वजन उसके प्रति खीझकर पल्ला झाड लेते है तथा वह एकाकी ही पीड़ा भोगता कुंठा ग्रस्त होकर स्वयम के नाश के लिये अवसर उत्पन्न कर लेता है।
यहाँ शेक्सपीयर का यह कथन दुर्बलतम शरीरों में अहंकार प्रबलतम होता है का उल्लेख करना प्रासंगिक है। अर्थ भी स्पष्ट है कि अंहकार का सीधा व प्रत्यक्ष संबंध दुर्बल शरीर से होता है। शरीर का अर्थ सिर्फ भौतिक काया ही नहीं वरन काया में स्थित चैतन्यता से भी है। इसी चैतन्यता को हम मन विवेक आत्मा तथा आन्तरिक प्रज्ञा भी कह सकते है ।
समर्थ की सहनशीलता व सहिष्णूता अहंकार की काट है अर्थात जो क्षमतावान है, शक्तिवान है तथा प्रभावी है यदि सहनशीलता व सहिष्णुता का गुण हो तो अहम उसे स्पर्श भी नहीं कर सकता। विकारों को परास्त करने में वह स्वयमेव समर्थ होता है तथा दूसरों के अहंकार तथा क्रोध को भी शांत कर सकता है।
अहंकार का सर्वाधिक विकृत रूप घमंड है। अहम तुष्टि के प्रयासों की चरम स्थिति से घमंड का जन्म होता है। व्यक्ति विस्मृत कर जाता है कि वह क्या सभी वस्तुये अनित्य है। वह उन्मादी की तरह प्रलाप करता है। सबको तुच्छ समझता है तथा तिरस्कार करता है। विपदा में घमंड तो काम आता नहीं, कोई व्यक्ति भी काम नहीं आता।
जीवन साधना सामाजिक सदभावना के लिये व्यक्ति का अहंकार एक अवरोधक तत्व है। जन्म जीवन और मृत्यु व्यक्ति के लिये शाश्वत सत्य है। निश्चित तौर पर व्यक्ति का जन्म पर वश नही है किन्तु जीवन और मृत्यु को तो वह सदगति प्रदान कर ही सकता है।
स्वामी विवेकानंद का कथन है- यदि तुम्हारा अंहंकार चला गया है तो किसी भी धर्म की पुस्तक की एक पंक्ति भी पढें बिना या किसी देवालय में पैर रखे बिना, तुम जहाँ बैठें हो, वही मोक्ष प्राप्त हो जायेगा ।