भोग ने व्यक्ति को पलायनवादी बना दिया है किंतु वह समझ नहीं पा रहा है कि सबसे तो भाग सकता है किंतु स्वयं से भाग कहां सकता है। भोग के क्षणिक उन्माद के पश्चात् जैसे ही पल मात्र के लिए उसका विवेक जागृत होता है. तीव्र आत्मिक ग्लानि में डूबने लगता है। यह आत्म-ग्लानि इतनी प्रबल होती है। कि वह होश (जागृत) में आना ही नहीं चाहता। स्थिति तो इतनी विकराल हो गई में है कि व्यक्ति भोग नहीं कर पा रहा है अपित भोग ही व्यक्ति का भोग करने लगा है।
भोग
भगवान कृष्ण द्वैपायन वेद व्यास ने लिखा है ‘जब-जब आध्यात्मिक चिंतन का अभाव होगा। व्यक्ति विषय-वासना की ओर तीव्रता से आसक्त हो भोग को ही सर्वोपरि मानने लगेगा’ उसका पतन प्रारम्भ होगा क्योंकि ‘भोगवादी चिंतन, व्यक्ति को मानसिक रूप से क्षीण कर उसके अन्तस को रज एवं तम गुण से भर देता है जिससे उसमें सात्विक भाव का पतन होने लगता है।’
चिंतक सुधाकर ने भी भौतिकता के प्रति आकर्षण को भोगवाद का कारण माना है। मनु स्मृति में लिखा है ‘भोग सत् को नष्ट करता है अत: व्यक्ति के भोगवादी चिंतन से मानस अस्थिर होकर भ्रमित हो जाता है जिससे इंद्रियां भी विषय भोग की कामना करने लगती है।’
उपरोक्त स्थिति से तो यही स्पष्ट होता है कि जैसे-जैसे भौतिक सुख सुविधा की वृद्धि होती है या भौतिक विकास बढ़ता है तब आध्यात्मिक चिंतन का अभाव होने लगता है। आध्यात्म का संबंध ईश्वरीय सत्ता से होता है। सत् के प्रति व्यक्ति के मन में एक आस्था होती है। तदानुसार उसका मानस भय से ही सही रज एवं तम से दूरी बनाकर रखता है किंतु अध्यात्म की कमी तथा भौतिक उपलब्धियां उसे तीव्रता से अपनी ओर आकर्षित करती है क्योंकि उसमें भले ही क्षणिक सुख मिलता हो। किंतु व्यक्ति आगत के परिणामों को अनदेखा कर जैसे कीट, पतंग ज्वाला की ओर अंधाधुंध भागते अपने अस्तित्व को ही दांव पर लगा देते हैं, भौतिक उपलब्धियों एवं प्राप्तियों को सर्वोपरि मानने लगता है।
यों तो विज्ञान ने संपूर्ण विश्व को विकास का बरदान दिया है किंतु पश्चिमी देश कुछ ज्यादा ही प्रभावित है। अतः वहां एक अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो देश गई है। व्यक्ति ने प्राप्ति की प्रतिस्पर्धा में स्वयं को कुछ उस कदर झोंक दिया है कि रिश्ते ,नाते ,संवेदना तथा मानव मूल्यों का अर्थ ही समाप्त हो गया है|
पश्चिम में भोग, भोग तक ही सीमित नहीं रह गया है, उन्मुक्त भोग चरम पर है। परिणामस्वरूप यहां भौतिकता की अधिकता तथा उन्मुक्त भोग ने व्यक्ति के मानस को ही विषाक्त कर दिया है।
भोग ने व्यक्ति को पलायन वादी बना दिया है किंतु वह समझ नहीं पा रहा है कि सबसे तो भाग सकता है किंतु स्वयं से भाग कहां सकता है। भोग के क्षणिक उन्माद के पश्चात् जैसे ही पल मात्र के लिए उसका विवेक जागृत होता है. तीव्र आत्मिक ग्लानि में डूबने लगता है। यह आत्म-ग्लानि इतनी प्रबल होती है। कि वह होश (जागृत) में आना ही नहीं चाहता। स्थिति तो इतनी विकराल हो गई में है कि व्यक्ति भोग नहीं कर पा रहा है अपित भोग ही व्यक्ति का भोग करने लगा है।
ऐसा नहीं है कि भोग शरीर को ही प्रभावित कर रहा है, इससे तो मानसिक एवं आत्मिक क्षति भी हो रही है। वैसे भी व्यक्ति का शरीर ही तो मानस एवं अन्तस का वास स्थल है। कहा भी गया है ‘हेल्दी माइंड इज आलवेज इन हेल्दी बॉडी।” जंर्जर शरीर में स्वस्थ चिंतन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।
भोग भौतिक प्राप्ति का उपभोग है तो योग इनका त्याग| भोग और योग सर्वधा एक दूसरे के भिन्न हैं जबकि भोग और काम एक दूसरे के पूरक हैं क्योंकि दोनों को एकांत चाहिए। दोनों ही अंधकार में फलते फूलते हैं। दोनों स्वभाव एवं प्रकृति से उदंड उश्रृंखल तथा मर्यादा रहित है। अंत ही इनकी सीमा है।
मनु स्मृति में लिखा है ‘कितना भी विषय भोग क्यों न किया जाये, काम की तृप्ति नहीं होती जिस प्रकार को निरंतर ईंधन डालने से अग्नि कभी नहीं बुझती। भोग ही इस जीवन का आगार है। अतः इसे भोग-जीवन की हथकड़ियां कहा गया है।’ जीव का एकमात्र लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है। मोक्ष अर्थात् जीवन के आवागमन से मुक्ति ।
महात्मा बुद्ध ने कहा है ‘तृष्णा ही तो भोगों को प्राथमिकता से महत्वदेती है जो व्यक्ति के जीवन को कष्टों से तो भरती ही है, साथ ही उसके चित्त को भी भ्रमित करती है। भ्रम विभिन्न संशयों का कारण है। अतः भ्रमित जीव, जीवन में न तो मानस को केन्द्रित कर सकता न साधना कर सकता, और न ही मानस को अन्तस की प्रभा से प्रभावित होने देता। परिणाम स्वरूप उसका पूरा जीवन कष्टों से भरा रहता है तथा वह दोन, हीन भाव से जर्जर काया एवं भ्रमित मानस लिए भोगों को कोसते ही रहता है।
महानतम तर्क शास्त्री, चिंतक तथा दार्शनिक ओशो रजनीश ने भोग-वाद को स्वीकार किया था किंतु उनका कथन था ‘व्यक्ति के जीवन का चरम उद्देश्य भोग नहीं योग है तथा योग तक पहुंचने के लिए भोग को माध्यम बनाया जा सकता है’ आगे उन्होंने इसकी व्यापक व्याख्या करते तर्क दिया कि भोग की अधिकता भोग से विरक्ति उत्पन्न करती है जिस प्रकार एक ही प्रकार का भोजन लगातार सेवन करने से उसके प्रति अरुचि होने लगती है |
ययाति ने शर्मिष्ठा के साथ संबंध स्थापित कर अपनी पत्नी देवयानी जो महान शुक्राचार्य की पुत्री थी को नाराज कर दिया। ययाति को बूढ़े हो जाने का श्राप है दिया। ययाति को भोग अत्यंत प्रिय था अतः उसने शुक्राचार्य से श्राप को वापस लेने का अनुरोध किया किंतु शुक्राचार्य ने श्राप में संशोधन करते कहा ‘मेरी बात झूठी नहीं हो सकती। हां। तुम्हें इतनी छूट देता हूं कि तुम अपना यह बूढ़ापा किसी दूसरे को दे सकते हो।’ ययाति ने अपने पुत्रों से यौवन मांगा किंतु बूढ़ापा किसी को भी तो स्वीकार नहीं था किंतु सबसे छोटे पुत्र पुरू ने बूढ़ापा लेकर पिता को अपना यौवन दे दिया। पुरू की जवानी पाकर ययाति ने भरपूर भोग किया।
एक हजार वर्ष तक भोग करने के पश्चात् ययाति ने अपने पुत्र पुरू को बुलाकर कहा ‘बेटा, मैंने तुम्हारी जवानी से इच्छानुसार उत्साह के साथ अपने प्रिय विषयों का भोग किया परंतु अब मुझे निश्चय हो गया है कि विषयों के भोग की कामना उनके भोग से शांत नहीं होती। आग में जितनी घी डालते जाओ वह बढ़ती ही जाती है।
पृथ्वी में ज़ितना भी अन्न, सोना, पशु और स्त्रियां हैं, वे एक कामुक की कामना पूर्ण करने में भी असमर्थ हैं। इसलिये सुख उनकी प्राप्ति से नहीं, उनके त्याग से होता है। दुर्बुद्धि लोग तृष्णा का त्याग नहीं कर सकते। बूढ़े होने पर भी भोग की कामना बूढ़ी नहीं होती। यह एक प्राणांतक रोग है। उसे छोड़ने पर ही सुख मिलता है। देखो, विषयों का सेवन करते-करते एक हजार वर्षपूरा हो गया फिर भी मेरी भोग के प्रति आसक्ति बढ़ती ही जा रही है…।’ ययाति ने पुत्र पुरू को उसका यौवन लौटा दिया।
चार्वाक शरीर में जो दिखलाई देता है, उसे ही सर्वोपरि मानते हैं। चार्वाक समर्थकों का मत हैं ‘ शरीर है तो सभी कुछ है। यदि शरीर ही नहीं है तो किसी अन्य अनुभूति की कल्पना भी की कैसे जा सकती है। चेतना को ही आत्मा कहा जा सकता है। जन्म के पहले चेतना नहीं थी तथा मृत्यु के पश्चात् भी चेतना नहीं होती। अतः शरीर के साथ ही चेतना प्रारंभ होती है तथा इसी के साथ नष्ट भी हो जाती है। इस प्रकार शरीर और आत्मा का संबंध मात्र जीवन भर के लिए होता है।’ आगे ये कष्ट के साथ कष्ट तथा सुख के साथ सुख का अनुभव करता है। अतः शरीर का यह दायित्व है कि आत्मा को अधिकाधिक सुख दे। भोगों से शरीर को सुख मिलता है या विषय-वासना से शरीर को आनंद की अनुभूति होती है, तो इसे आत्मा भी स्वीकार करती है। मन मार कर या शरीर को कष्ट पहुंचा कर आत्मा को प्रसन्न नहीं किया जा सकता।
चार्वाक वादी तो यहां तक मानते हैं कि जिस प्रकार साथी अथवा मित्र को प्रसन्न रखना चाहिए, उसी तरह विभिन भोगों के द्वारा शरीर के मित्र को संतुष्ट व प्रसन्न रखना चाहिए। वैसे भी आत्मा, शरीर का जीवन भर का साथ है। अतः शरीर के कृत्यों में उसकी सहभागिता को कैसे नकारा जा सकता है। यहां यह भी उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि चार्वाक वेद, उपनिषद में आस्था नहीं रखता फिर भी अपने मत के पक्ष में तैतेरीय उपनिषद को उद्धृत किया है जिसके अनुसार यह शरीर या मनुष्य भोजन एवं जल के संयोग से निर्मित है।
भोग के प्रति आकर्षण कोई लाइलाज बीमारी की तरह नहीं है। पहले ही कहा जा चुका है कि सभ्यता के विकास के साथ भोग की प्रवृत्ति अधिक बढ़ने लगी है। इसका अर्थ है वे जो सभ्य, सुसंस्कृत तथा शिक्षित है, वे ही भोग को अधिक सर्वोपरि मानने लगे हैं। अत: तनिक सोच व मानसिक दृढ़ता से वे अत्यधिक भोग के भयावह परिणाम से मुक्त हो सकते है। बीमारियों में दवाई के रूप में अल्कोहल ही नहीं विष का भी प्रयोग मानव हित में किया जाता है। यहां तक कि कुछ स्थितियों में तो चिकित्सक अल्कोहल सेवन की अनुमति भी देते हैं किंतु एक शराबी की तरह अल्कोहल प्रयोग तो घातक होगा ही क्योंकि इसमें विवेक, समय एवं अनुशासन को नकार दिया जाता है।
संत तुलसीदास, सूरदास तथा बाल्मिकी जैसे जाने कितने पात्र ऐसे हैं जिन्होंने प्रारंभिक जीवन में भोग को ही सर्वोपरि माना था किंतु आन्तरिक प्रज्ञा के जागृत होने पर उन्होंने भोग का परित्याग कर दिया। साक्षात ब्रम्ह का उन्होंने दर्शन किया तथा अपनी लेखनी से मानव समाज का उद्धार किया। मानव समाज आज भी उनका ऋणी है। अत: व्यक्ति, समाज, राष्ट्र तथा विश्व मानवता के हित में भोग का त्याग करना ही आवश्यक है।
छत्तीसगढ़ के पिथौरा जैसे कस्बे में पले-बढ़े ,रह रहे लेखक शिव शंकर पटनायक मूलतःउड़ियाभासी होते हुए भी हिन्दी की बहुमूल्य सेवा कर रहे हैं। कहानी, उपन्यास के अलावा निबंध लेखन में आपने कीर्तिमान स्थापित किया है। आपके कथा साहित्य पर अनेक अनुसंधान हो चुके हैं तथा अनेक अध्येता अनुसंधानरत हैं। ‘ निबंध संग्रह भाव चिंतन के निबंधों का अंश deshdigital उनकी अनुमति से प्रकाशित कर रहा है |