देश में बुनियादि शिक्षा के हालात बेहद चिंताजनक एवं चुनौतीपूर्णं बने हुए हैं. देशभर के प्रायमरी के स्कूली बच्चों पर सरकार सालाना औसतन 15 से 20 हजार रूपए खर्च कर रही है, इसके बावजूद प्राथमिक शिक्षा की स्थिति बेहद खराब है. दुर्भाग्यपूर्णं पहलू यह है कि सरकार को प्राथमिक शिक्षा की कतई चिंता नहीं है. सरकार की चिंताएं केवल कागजी या कहें फाईलों तक सीमित हैं, अन्यथा आजादी के साढ़े सात दशक बाद इस तरह की स्थितियां नहीं रहतीं।. डॉ. लखन चौधरी
देश में इन दिनों शिक्षा के हालात बेहद खराब एवं गुणवत्ताहीन दिखलाई देते हैं। प्राथमिक या बुनियादि शिक्षा के हालात तो और तो चिंताजनक एवं चुनौतीपूर्णं बने हुए हैं। सरकारें शिक्षा को अनुत्पादक खर्च मानती रहीं हैं, लिहाजा सरकारों की प्राथमिकताओं में शिक्षा कतई नहीं होती है। इसका सबसे बड़ा खामियाजा मध्यमवर्ग को भुगतना पड़ता है। निम्नवर्ग को शिक्षा से मतलब नहीं है, और तमाम नेताओं एवं नौकरशाहों सहित उच्चवर्ग के बच्चे बाहर चले जाते हैं। यही वजह है कि सरकारें शिक्षा के प्रति फोकस नहीं करती हैं। यदि सरकार चाहती है कि देश में आजादी का अमृत महोत्सव फलीभूत हो तो हर हाल में सरकार को शिक्षा पर ध्यान देनी होगी। तभी इस अभियान की सफलता है।
इधर सरकार आजादी का अमृत महोत्सव मना रही है। एक ओर आजादी की 75 वीं वर्षगांठ को लेकर जोरशोर से जश्न मनाये जा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर 2047 में देश की आजादी के 100 वीं वर्षगांठ के लिए नये-नये संकल्प तैयार किये जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि 25 साल बाद भारत की तस्वीर अलग होगी। बिल्कुल अलग होनी चाहिए, एक सक्षम, सशक्त और विकसित भारत की तस्वीर 1947 के भारत से यकीनन अलग होनी चाहिए, लेकिन कैसे अलग होगी ? यह एक यक्ष प्रश्न है, जिस पर फोकस करने के बजाय गैर जरूरी मसलों पर सरकार फोकस करती नजर आती है।
यदि शिक्षा के स्थान पर फोकस करने के बजाय सरकार अन्य मसलों पर फोकस करेगी तो इन लक्ष्यों की पूर्ति असंभव होगी, क्योंकि देश में विकास मानकों की नई रिपोर्ट के मुताबिक देश में भाजपा शासित राज्यों की तुलना में गैर भाजपा शासित राज्यों का प्रदर्शन बेहतर एवं संतोषजनक है। देश के चौदह प्रमुख राज्यों की रैंकिंग में गैर भाजपा शासित तीन राज्य केरल, दिल्ली एवं छत्तीसगढ़ अग्रणी एवं बेहतर प्रदर्शन के साथ शीर्ष पर हैं, वहीं भाजपा शासित तीन राज्य मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश एवं उत्तराखण्ड बदतर एवं खराब प्रदर्शन करते हुए सबसे निचले पायदान पर फिसड्डी बने हुए हैं। मध्यप्रदेश की स्थिति तो और भी चाैंकाने वाली है, क्योंकि वहां भाजपा को सत्ता संभाले लगभग दो दशक होने जा रहे हैं।
देश में बुनियादि शिक्षा के हालात बेहद चिंताजनक एवं चुनौतीपूर्णं बने हुए हैं। देशभर के प्रायमरी के स्कूली बच्चों पर सरकार सालाना औसतन 15 से 20 हजार रूपए खर्च कर रही है, इसके बावजूद प्राथमिक शिक्षा की स्थिति बेहद खराब है। दुर्भाग्यपूर्णं पहलू यह है कि सरकार को प्राथमिक शिक्षा की कतई चिंता नहीं है। सरकार की चिंताएं केवल कागजी या कहें फाईलों तक सीमित हैं, अन्यथा आजादी के साढ़े सात दशक बाद इस तरह की स्थितियां नहीं रहतीं।
देश के प्राइमरी कक्षाओं में पढ़ रहे 12 करोड़ बच्चों की ’फाउंडेशनल लिटरेसी एंड न्यूमेरेसी’ रिपोर्ट में कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं। मसलन पांचवीं कक्षा के करीब 50 फीसदी बच्चे दूसरी कक्षा की किताबें नहीं पढ़ सकते हैं। पांचवीं कक्षा के 24.5 फीसदी और सातवीं कक्षा के 24 फीसदी बच्चे ही ‘घटाना’ जानते हैं। दूसरी कक्षा के महज 3.8 फीसदी बच्चों को ही ‘भाग’ आता है। रिपोर्ट से साफ है कि देश में सरकारी प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था कितनी बदहाल है। केन्द्र एवं तमाम राज्यों की सरकारें सरकारी प्राथमिक शिक्षा में बुनियादि सुधारों की बातें बहुत करती हैं। गुणात्मक सुधारों का दंभ तक भरती हैं, लेकिन हकीकत बिल्कुल उल्टी है। इससे भी अधिक दुर्भाग्यजनक यह है कि इसकी किसी को चिंता तक नहीं है।
इस वक्त देश के पांचवीं कक्षा के 50 फीसदी बच्चे दूसरी कक्षा की किताबें नहीं पढ़ सकते हैं। दूसरी कक्षा के 11 फीसदी, पांचवीं कक्षा के 25 फीसदी और सातवीं कक्षा के 24 फीसदी बच्चे ही ‘घटाना’ जानते हैं। यानि दूसरी के 89 फीसदी, पांचवीं के 75 फीसदी एवं सातवीं के 76 फीसदी बच्चे ’घटाना’ नहीं जानते हैं। इसी तरह दूसरी कक्षा के महज 4 फीसदी, पांचवीं के 28 फीसदी एवं सातवीं के 39 फीसदी बच्चों को ‘भाग’ देना आता है। यानि दूसरी के 96, पांचवीं के 72 फीसदी एवं सातवीं के 61 फीसदी बच्चों को भाग देना नहीं आता है।
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साल 2012 में कक्षा दूसरी के 10 फीसदी बच्चे घटाना जानते थे, जो 2018 में मात्र एक फीसदी बढ़कर 11 फीसदी हुई है। 2012 में कक्षा दूसरी के 03 फीसदी बच्चे भाग देना जानते थे, जो 2018 में मात्र एक फीसदी बढ़कर 04 फीसदी हुई है। 2012 में कक्षा पांचवीं के 29 फीसदी बच्चे घटाना जानते थे, जो 2018 में 04 फीसदी घटकर 25 फीसदी हो गई है। 2012 में कक्षा पांचवीं के 25 फीसदी बच्चे भाग देना जानते थे, जो 2018 में मात्र 03 फीसदी बढ़कर 28 फीसदी तक पहुंची है। 2012 में कक्षा सातवीं के 28 फीसदी बच्चे घटाना जानते थे, जो 2018 में घटकर 24 फीसदी हो गई है। 2012 में कक्षा सातवीं के 42 फीसदी बच्चे भाग देना जानते थे, जो 2018 में घटकर 39 फीसदी हो गई है। साफ है पिछले एक दशक में स्थिति में बहुत ही मामूली सुधार आया है, बल्कि कई स्थितियों में तो गिरावट है, जो कि बेहद चिंताजनक हैै।
रिपोर्ट के निष्कर्ष की दूसरी चिंता यह है कि पिछले 15 सालों के अध्ययन के मुताबिक प्राथमिक शिक्षा से वंचित बच्चों या वयस्कों में रोजगार के अभाव में विध्वंसक गतिविधियों के मामले अधिक देखे गये हैं। यानि रोजगार नहीं होने या रोजगार नहीं मिलने की वजह से हिंसक गतिविधियों में संलिफ्तता की घटनाएं अधिक देखी गईं हैं। रिपोर्ट कहती है कि 18 साल की उम्र तक किसी न किसी हिंसक वारदात की वजह से इनकी गिरफ्तार होने की आशंका 70 फीसदी तक ज्यादा हो जाती है, यानि इनके अपराधी बनने का खतरा 70 फीसदी तक बढ़ता देखा गया है। इसी तरह प्राथमिक शिक्षा के अभाव में मासिक आमदनी में भी 10 फीसदी तक की गिरावट देखी गई है। इस तरह की अक्षमताओं, अदक्षताओं की वजह से बेरोजगारी लगातार बढ़ रही है।
’फाउंडेशनल लिटरेसी एंड न्यूमेरेसी’ यानि एफएलएन रिपोर्ट बच्चों में आधारभूत या मूलभूत साक्षरता और संख्यात्मकता कौशल विकसित करने की ठोस आवश्यकताओं पर बल देता है। एफएलएन तीसरी कक्षा तक के छोटे बच्चों में बुनियादी चीजों के पढ़ने, लिखने और गणित कौशल को संदर्भित करता है। यानि प्राथमिक स्तर के बच्चों की पढ़ने, लिखने की क्षमता के साथ गणित यानि संख्यात्मकता की समझ बताती है, जिससे विद्यार्थियों की बुनियादि सूझबूझ एवं ज्ञान के बारे में पता चलता है।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय द्वारा शुरू एवं सीबीएसई द्वारा लागू फाउंडेशनल लिटरेसी एंड न्यूमेरेसी मिशन का लक्ष्य 2025-26 तक प्राथमिक विद्यालयों में सार्वभौमिक बुनियादि साक्षरता और संख्यात्मकता हासिल करना है। एफएलएन तीसरी कक्षा तक के बच्चों की पढ़ने एवं बुनियादि गणित की समस्याओं को हल करने की क्षमता को संदर्भित करता है। दरअसल में ये वही कौशल होते हैं, जो बच्चों की भाषा, शब्दावली, क्षमता जैसे मसलों को हल करते हैं, जिनसे जीवन बनता है।
जीवन की दैनंदिनी की समस्याएं हल होती हैं। जानीमानी प्रतिस्पर्धात्मक संस्थानों द्वारा तैयार एवं प्रधानमंत्री आर्थिक सलाहकार परिषद द्वारा जारी एफएलएन रिपोर्ट, भारत की मूलभूत साक्षरता और संख्यात्मकता की स्थिति प्रदर्शित करती है, जिसमें बच्चों के समग्र विकास में प्राथमिक शिक्षा के महत्व पर प्रकाश डाला जाता है। फाउंडेशनल लिटरेसी एंड न्यूमेरेसी इंडेक्स 40 मानकों के आधार पर तैयार रिपोर्ट है, जिसमें निवास स्थान से स्कूलों की दूरी, स्कूलों में बिजली, खेल मैदान, पुस्तकालय, इंटरनेट, प्रवेश दर, ड्रॉपआउट रेट, स्कूलों में शिक्षकों की उपलब्धता, शिशु मृत्यु दर जैसे पैमाने सम्मिलित हैं।
विकास मानकों की संकेतक इस रिपोर्ट के अनुसार इस समय देश में भाजपा शासित राज्यों की तुलना में गैर भाजपा शासित राज्यों का प्रदर्शन बेहतर एवं संतोषजनक है। इस बीच महत्वपूर्णं सवाल यह है कि क्या सरकार या जनमानस को इस तरह के रिपोर्ट के निष्कर्षों की चिंता रहती है ? काश ! होती, तो भारतीय लोकतंत्र और सशक्त, और मजबूत होता। तात्पर्य यह है कि जब तक सरकारें शिक्षा जैसे महत्वपूर्णं सामाजिक क्षेत्र पर पूरी गंभीरता से फोकस नहीं करेंगे तब तक समाज का समावेशी विकास असंभव है, और जब तक समाज में समावेशी विकास की प्रक्रिया निरन्तरता में नहीं चलेगी तब तक समाज में समवेशी सृजन की संकल्पना अधूरी रहेगी। इसलिए शिक्षा जैसे मसलों पर सार्थक तरीके से सरकारों का ध्यान देना अनिवार्य है।
(लेखक; प्राध्यापक, अर्थशास्त्री, मीडिया पेनलिस्ट, सामाजिक-आर्थिक विश्लेषक एवं विमर्शकार हैं)
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