बैंकिंग सेक्टर में लगातार बढ़ते निजीकरण संबंधी सरकार की नीतियों को लेकर केन्द्रीय बैंक यानि रिर्जव बैंक ऑफ इंडिया के डिप्टी गर्वनर ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंको के बड़े पैमाने पर निजीकरण को लेकर बड़ी बात कही है। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की बुलेटिन में प्रकाशित एक लेख में कहा गया है कि सरकार के इस कदम से फायदे की बजाय नुकसान अधिक हो सकता है। लेख में इस मसले को लेकर सरकार का ध्यान आकृष्ट करने की बात कही है, जिससे समय रहते इस मसले पर विचार किया जा सके। -डॉ. लखन चौधरी
बैंकिंग सेक्टर में लगातार बढ़ते निजीकरण संबंधी सरकार की नीतियों को लेकर केन्द्रीय बैंक यानि रिर्जव बैंक ऑफ इंडिया के डिप्टी गर्वनर ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंको के बड़े पैमाने पर निजीकरण को लेकर बड़ी बात कही है। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की बुलेटिन में प्रकाशित एक लेख में कहा गया है कि सरकार के इस कदम से फायदे की बजाय नुकसान अधिक हो सकता है। लेख में इस मसले को लेकर सरकार का ध्यान आकृष्ट करने की बात कही है, जिससे समय रहते इस मसले पर विचार किया जा सके।
केन्द्रीय बैंक यानि रिर्जव बैंक ऑफ इंडिया के इस लेख में यह बात सामने आई है कि निजी बैंक अधिकतम लाभ कमाने की अवधारणा पर काम करते हैं, जबकि सार्वजनिक बैंकों का मुख्य उद्देश्य वित्तीय समावेशन करना होता है। पिछले अनुभव भी बताते हैं कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने यह काम बखूबी किया है। जिसका परिणाम यह हुआ है कि देश में मध्यमवर्ग एवं निम्न वर्ग में वित्तीय सार्मथ्यतता बहुत हद तक बढ़ी है। यह सही है कि देश के आर्थिक विकास में भी बैंकिंग सेक्टर के विकास ने महत्वपूर्णं भूमिका अदा की है। सार्वजनिक बैंकों ने इसमें बेहतर प्रदर्शन के साथ आमजनता के वित्तीय सुरक्षा एवं सुदृढ़ता के लिए काम किया है। बैंकिंग सुविधाओं में बढ़ोतरी से आज देश के आमजन की वित्तीय सार्मथ्यतता बढ़ी है, इसमें कोई दो राय नहीं है।
रिर्जव बैंक ऑफ इंडिया के इस लेख के माध्यम से जो गंभीर सवाल उठाये हैं, वह गौर करने वाली है। लेखक का कहना है कि सार्वजनिक क्षेत्र की तमाम समस्याओं के लिए अक्सर निजीकरण को एक सरल समाधान के तौर पर लिया एवं देखा जाता है, लेकिन यह एक मात्र समाधान कतई नहीं है। इसके लिए बेहद सावधानी एवं सर्तकता की जरूरत होती है। यानि निजीकरण के रास्ते पर जाने के लिए बेहद सतर्क दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है। जब कोई आर्थिक नीति में निजीकरण का रास्ता अख्तियार किया जाता है तो इसमें यह सर्तकता और बढ़ जाती है।
आरबीआई के डिप्टी गर्वनर का साफ मानना है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की तुलना में निजी क्षेत्र के बैंकों को बढ़ावा देने से केवल वित्तीय समावेशन एवं मौद्रिक प्रचलन ही नहीं अपितु सामाजिक सामवेशन भी प्रभावित हो सकता है, जो इस समय देश की सबसे बड़ी जरूरत है। इसका तात्पर्य यह हो सकता है कि भारतीय समाज में आर्थिक विकास की प्रक्रिया का जो सामाजिकरण हुआ है, बैंकिग क्षेत्र के निजीकरण से इसमें रूकावट आ सकती है। आरबीआई की यह चिंता बिल्कुल जायज एवं वाजिब है, क्योंकि निजी बैंकों में ग्राहकों को जिस तरह से पहले तो आकर्षित किया जाता है और बाद में बेहद ऊंची ब्याजदरों के साथ लूटा जाता है।
साफ है कि केन्द्रीय बैंक यानि रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के डिप्टी गर्वनर ने इस लेख में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के लगातार हो रहे निजीकरण को देश के माजूदा हालात के लिए ठीक नहीं मानते हुए सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के निजीकरण पर लगाम लगाने की सलाह दी है, जो बेहद उपयुक्त एवं वाजिब है। उल्लेखनीय है कि देश में 1969 में 14 एवं 1980 में 6 निजी क्षेत्र के बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया था। 2017 में देश में सार्वजनिक क्षेत्र के 27 राष्ट्रीयकृत बैंक थे, जो अब घटकर मात्र 12 रह गये हैं।
दरअसल में अर्थव्यवस्था के विकास की प्रक्रिया में हमारी सार्वजनिक बैंकिंग क्षेत्र का बहुत ही महत्वपूर्णं एवं सार्थक योगदान रहा है। चाहे वह बाजार में मांग बढ़ाने के मामले हों, चाहे आमजनता की क्रयशक्ति बढ़ाने के मामले हों। शिक्षा सुलभ करने जैसे मसले हों या गरीबी निवारण का मसला हो। स्वरोजगार बढ़ाने की बात हो या बेरोजगारी कम करने के मसले हों। उद्योगधंधों के विकास एवं वृद्धि के मामले हों या खेतीकिसानी की दशा-दिशा में सुधार की बात हो। बैंकिंग क्षेत्र ने आजादी के बाद देश के आर्थिक विकास में मील के पत्थर की भूमिका निभाई है।
इसके बावजूद सरकार द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का लगातार निजीकरण करना न केवल दुर्भाग्यपूर्णं है, बल्कि बेहद चिंताजनक भी है, क्योंकि भारत की विशालतम गरीब, पिछड़ी जनसंख्या के आर्थिक एवं वित्तीय विकास एवं प्रगति के लिए बैंकिंग सहायता की आवश्यकता आज भी बनी हुई है। सरकार भारत को यूरोप, अमेरिका के रास्ते ले जाना चाहती है, पर क्या यह संभव है ? बड़ा सवाल है। भारत में निजीकरण चाहे वह बैंकों का हो या सार्वजनिक उद्यमों का, चाहे वह अन्य औद्योगिक इकाईयों का हो चाहे अर्थव्यवस्था का। कभी भी सफल नहीं हो सकता है। सरकार को यह तथ्य याद रखनी चाहिए।
(लेखक; प्राध्यापक, अर्थशास्त्री, मीडिया पेनलिस्ट, सामाजिक-आर्थिक विश्लेषक एवं विमर्शकार हैं)
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