हिन्दू-मुस्लिम सभी अध्यात्म और सूफ़ी रंग में थिरकते संत कुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी के दरगाह पहुँचते हैं। मंदिर से लाई फूलों की चादर और पंखा से मज़ार पोशी होती है। ऐसे प्यारे मुल्क में जब एक लड़की भरत नाट्यम सीखती है तो उसे मस्जिद कमेटी समाज से बेदख़ल कर देती है। मंदिरों के उत्सवों में जब उसके नृत्य की धूम मचती है तो एक दिन अचानक मंदिर से भी उसका बॉयकॉट कर दिया जाता है- @सैयद शहरोज़ क़मर
रंगों की धमक अभी फ़िज़ा में क़ायम ही है। जिसकी अनुगूँज अभी बाक़ी है, जब बुल्ले शाह जैसा सूफ़ी-शायर बिस्मिल्लाह कह कर होली खेलने की बात कह गया। ध्रुव गुप्त सा पुलिस का आला अफ़सर रहा कोई क़ुरआन की सूरों का काव्यात्मक अनुवाद करता है।
जिस देश की राजधानी में फूलों वाली सैर एक मंदिर से शुरू होकर एक दरगाह में जाकर विराम पाती है। महरौली के योगमाया मंदिर में फूलों का छत्र और पंखा चढ़ाये जाने के बाद इस सैर का आगाज़ होता है।
हिन्दू-मुस्लिम सभी अध्यात्म और सूफ़ी रंग में थिरकते संत कुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी के दरगाह पहुँचते हैं। मंदिर से लाई फूलों की चादर और पंखा से मज़ार पोशी होती है।
ऐसे प्यारे मुल्क में जब एक लड़की भरत नाट्यम सीखती है तो उसे मस्जिद कमेटी समाज से बेदख़ल कर देती है। मंदिरों के उत्सवों में जब उसके नृत्य की धूम मचती है तो एक दिन अचानक मंदिर से भी उसका बॉयकॉट कर दिया जाता है- कानों में उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ान की शहनाई गूँजने लगती है। गंगाजल हिलोरें ले उठता है। वही बिस्मिल्लाह जिनकी सुबह की बिस्मिल्लाह गंगा से वज़ू कर बालाजी मंदिर में शहनाई अर्पण से होती थी।
केरल के मल्लपुरम ज़िले में रहनेवाले एक मुस्लिम परिवार में उस लड़की मनसिया वीपी का जन्म हुआ। माँ अमीना ने मनसिया और उनकी बड़ी बहन रुबिया को भरतनाट्यम सिखाना शुरू किया, तब उनकी उम्र महज़ तीन साल थी।
सऊदी अरब में नौकरी कर रहे उनके पिता वीपी अलाविकुट्टी को इसपर कोई एतराज़ नहीं हुआ। उन्होंने हौसला ही बढ़ाया। लेकिन जब स्थानीय मस्जिद कमेटी को ये पता चला तो सख़्त एतराज़ जताया। सामाजिक बेदख़ल की धमकी तक दे डाली।
लेकिन माँ-पिता के उत्साह इन बच्चियों में ऊर्जा भरते गए। इन बहनों का डंका बजने लगे। क़रीब हर मंदिर में होने वाले धार्मिक उत्सवों में मनसिया के भरत नाट्यम का दर्शक बेसब्री से इंतज़ार करते। अब अरब से पिता लौट आये थे। यह 2006 की बात है, माँ को कैंसर हो गया।
इलाज मंहगा। लेकिन सऊदी अरब से इलाज के लिए आर्थिक मदद की ख़बर ने हिम्मत दी। लेकिन यह क्या मस्जिद कमेटी ने उसमें अड़ंगा डाल दिया। आते-आते पैसा रुक गया। माँ ज़िन्दगी की भीख मांगती रही, लेकिन मस्जिद कमेटी पर इस आंतरिक गुहार का कुछ असर न पड़ा।
आख़िर 2007 में यह बेटियाँ ममता से अनाथ हो गईं। चैन मस्जिद कमेटी को जब आया तब उन्होंने स्थानीय क़ब्रिस्तान में अमीना को दफ़नाने तक न दिया।
इधर कुछ दिनों पहले की बात है। त्रिचूर के कूडलमनिक्यम मंदिर में वार्षिक उत्सव होने हैं। हर बार की तरह मनसिया ने भी हिस्सा लेने और प्रस्तुति करने के लिए आवेदन कर दिया। दूसरी ओर वो तैयारी में जुट गईं।
उनका नृत्य-अभ्यास-रियाज़ जारी ही था कि एक फोन कॉल ने उनके पग थाम दिए। घुँघरू ठिठक गए। वो कॉल मंदिर कमेटी की थी, आयोजक कह रह थे वो प्रस्तुति नहीं दे सकती क्योंकि वह मुसलमान है। मंदिर में ग़ैर-हिंदुओं का प्रवेश वर्जित है।
नज़ीर बनारसी का मशहूर शेर याद आता है:
ज़ाहिद-ए-तंग-नज़र ने मुझे काफ़िर समझा
और काफ़िर ये समझता है मुसलमाँ हूँ मैं।
( जन सरोकारों से जुड़े सैयद शहरोज़ क़मर पेशे से पत्रकार फ़ितरत से कवि हैं। कई किताबें प्रकाशित। छत्तीसगढ़, दिल्ली में विभिन्न मीडिया हाउस में काम करने के बाद 12 सालों से झारखंड में। संप्रति स्वतंत्र लेखन।) शहरोज की अन्य आलेखों /कहानियों के लिए इस लिंक पर क्लिक करें : Shahroz Quamar शहरोज़ )
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