छत्तीसगढ़ सहित देश भर के उच्च शिक्षा सेवा संस्थानों या विभागों में इन दिनों शिक्षा एवं शैक्षणिक कार्यों को छोड़कर गैर-शैक्षणिक कार्यों का बोझ लगातार बढ़ता जा रहा है, जो दबाव एवं तनाव का कारण बन रहा है। चूंकि अधिकांश , 90 से 95 फीसदी प्रोफेसर एवं प्राचार्य इस तरह के गैर-शैक्षणिक कार्यों, जिम्मेदारियों एवं जवाबदेहियों के आदि नहीं होते हैं, अनुभव नहीं रहता है, दक्ष नहीं होते हैं, लिहाजा प्रशासनिक एवं अन्य कार्यों को करने में असहज होते हैं। -डॉ. लखन चौधरी
आत्महत्या का अमरबेल: विवेचना एवं पड़ताल की दरकार (2)
आजादी के सात दशक बाद यह बहुत दुखद एवं दुर्भाग्यपूर्णं है कि देश में हर रोज तकरीबन 419 लोग विभिन्न कारणों से आत्महत्या कर रहे हैं, या कहा जाये कि देश में रोजाना करीब चार सौ लोग खुदकुशी करते हैं। रिपोर्ट बताती है कि इसमें अधिकतर निचले तबके के कम आमदनी वाले लोग होते हैं। इन आत्महत्याओं में एक तिहाई दिहाड़ी मजदूर एवं छोटे, लघु-सीमांत किसान होते हैं। इनके सामने रोजगार से लेकर तमाम तरह की समस्याएं एवं चिंताएं होती हैं। लेकिन पढ़े-लिखे, नौकरी पेशा वाले क्लास-वन अधिकारी श्रेणी के लोग जब आत्महत्या जैसे कदम उठाते हैं तो शिक्षा एवं समझदारी पर भी संदेह होता है और शिक्षा एवं समझदारी पर भी सवाल उठने लगते हैं। हांलाकि ऐसा नहीं है कि जीवन की चिंताएं एवं समस्याएं इन पर नहीं होती हैं।
इन दिनों नौकरी पेशा वालों पर भी जिस तरह का दबाव एवं तनाव लगातार बढ़ता जा रहा है, उसकी विवेचना एवं पड़ताल भी जरूरी है। सरकारी नौकरी पेशा वालों के लिए कहा जाता है कि वेतन पूरी तरह सुरक्षित होने के बावजूद यह वर्ग खुदकुशी जैसे कदम क्यों उठाता है ? दरअसल आत्महत्याओं के लिए केवल आर्थिक तंगी या असुरक्षा ही जिम्मेदार नहीं होती है। आजकल सरकारी नौकरियों में काम, जवाबदेही एवं जिम्मेदारी का जिस तरह का दबाव एवं तनाव बढ़ता जा रहा है, वह इन आत्महत्याओं की वजह बनती जा रही है।
बहरहाल, छत्तीसगढ़ सहित देश भर के उच्च शिक्षा सेवा संस्थानों या विभागों में इन दिनों शिक्षा एवं शैक्षणिक कार्यों को छोड़कर गैर-शैक्षणिक कार्यों का बोझ लगातार बढ़ता जा रहा है, जो दबाव एवं तनाव का कारण बन रहा है। चूंकि अधिकांश , 90 से 95 फीसदी प्रोफेसर एवं प्राचार्य इस तरह के गैर-शैक्षणिक कार्यों, जिम्मेदारियों एवं जवाबदेहियों के आदि नहीं होते हैं, अनुभव नहीं रहता है, दक्ष नहीं होते हैं, लिहाजा प्रशासनिक एवं अन्य कार्यों को करने में असहज होते हैं।
रूचि के विपरीत प्रशासनिक एवं गैर-शैक्षणिक कार्यों, जिम्मेदारियों एवं जवाबदेहियों की असहजता भारी-भरकम तनाव एवं दबाव पैदा करती है। नतीजा कई तरह की बीमारियां एवं खुदकुशी जैसे कदमों तक जा पहुचती हैं। डॉ. भुवनेश्वर नायक की खुदकुशी के पीछे भी यह एक वजह हो सकती है, लेकिन इसके इतर अनेक मुख्य वजहें हैं उन पर यहां विस्तार से समीक्षा एवं चर्चा होगी।
सरकारों विशेषकर राज्य सरकारों की कार्यशैली एवं कार्यसंस्कृति ने शिक्षा विभागों को जिस तरह से बर्बाद किया है, वह बहुत ही चिंतनीय है। सरकारी भाषा में अनुत्पादक समझे जाने वाले इस विभाग को सरकारें सफेद हाथी समझती हैं। वोटबैंक के लालच एवं प्रलोभन में बड़ा बजट आबंटन तो इस विभाग को कर दिया जाता है लेकिन नौकरशाही एवं अफसरशाही के चलते यह विभाग दिनोंदिन अधिक अनुत्पादक एवं गैर-जरूरी होता जा रहा है।
किसी जमाने एवं समय में राष्ट्रनिर्माता की भूमिका निभाने वाले शिक्षक एवं शिक्षा की वर्तमान राजनीति में इस कदर अवहेलना एवं उपेक्षा हो रही है एवं की जा रही है कि यह सोच कर भी भारी ग्लानि एवं पीड़ा होती है।
कोविड की आड़ में नौकरशाही एवं अफसरशाही द्वारा शिक्षकों एवं शिक्षा विभाग की जिस तरह से दुर्दशा की गई है, वह इससे भी अधिक विचारणीय है। कभी ऑन-लाईन तो कभी ऑफ-लाईन और अब दोनों ऑन-लाईन एवं ऑफ-लाईन एक साथ, इतने तरह के प्रयोग किये जा रहे हैं, जिसकी शिक्षकों द्वारा कल्पना नहीं की जा सकती है।
शिक्षकों को बगैर पूछे, शिक्षकोंके बगैर सलाह-मशवरा के नई-नई नीतियां एवं योजनाएं बनाये एवं लागू किये जाते हैं। साधन-संसाधन विहीन संस्थाओं से दबावपूर्वक उम्मीद की जाती है वे सारे आदेशॉन का पालन आज्ञाकारिता के साथ करें। इससे भी अधिक दुर्भाग्यपूर्णं यह है कि जिन लोगों को स्कूली एवं उच्च शिक्षा विभागों की जिम्मेदारी दी जा रही है, जिनको मंत्री बनाया जा रहा है, उनको इन विभागों में न तो रूचि है, न अनुभव है और न ही उन्हें इन विभागों से कोई लेना-देना है।
पिछले दिनों राज्य के उच्च शिक्षा विभाग द्वारा 595 प्रोफेसर पदों पर सीधी भर्ती से नियुक्ति का विज्ञापन निकाला गया था। इसमें उच्च शिक्षा विभाग के अधिकारियों द्वारा जानबुझकर ऐसा पेंच लगाया गया कि इस विज्ञापन को ही वापस लेना पड़ा। ढाई सौ से अधिक सरकारी महाविद्यालय वाले राज्य में इस समय ढाई सौ भी प्रोफेसर नहीं हैं। जो भी हैं, वे पदोन्नत प्रोफेसर हैं।
इसे बड़ी विडम्बना कहा जाये या राज्य का दुर्भाग्य कि उच्च शिक्षा को लेकर सरकार बड़े-बड़े वादे एवं दावे करती है, लेकिन नये राज्य बनने के दो दशक बाद भी प्रोफेसर की भर्ती नहीं कर पा रही है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि राज्य में उच्च शि क्षा की गुणवत्ता की क्या स्थिति होगी या उच्च शि क्षा कितनी बदहाल हो सकती है ?
क्रमशः
(लेखक; प्राध्यापक, अर्थशास्त्री, मीडिया पेनलिस्ट, सामाजिक-आर्थिक विश्लेषक एवं विमर्शकार हैं)
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