तमाम सावधानियों, प्रयासों एवं उपायों के बावजूद राज्य में विश्वविद्यालयीन परीक्षाएं एक बार फिर ऑनलाईन पद्धति से होने जा रही हैं। इस बार सरकार एवं विश्वविद्यालय अन्तिम समय तक प्रयासरत थे, कि परीक्षाएं ऑफलाईन पद्धति से होनी चाहिए। सभी जरूरी तैयारियां हो चुकीं थीं, लेकिन कोरोना की तीसरी लहर के बढ़ते संक्रमण के चलते विद्यार्थियों के बढ़ते विरोध एवं दबाव की वजह से अंततः ऑनलाईन पद्धति से परीक्षाएं कराने का निर्णय लिया गया। -डॉ. लखन चौधरी
सरकार के इस निर्णय से विश्वविद्यालय, विद्यार्थी, शिक्षक, पालक एवं जनमानस कितने खुश एवं संतुष्ट है ? यह विमर्श का विषय हो सकता है, क्योंकि यह निर्णय उच्चशिक्षा से जुड़ा मसला है। विद्यार्थी संघों की मांग एवं मान्यता है कि चूंकि अध्ययन-अध्यापन या पढ़ाई ऑनलाईन पद्धति से हुई है, हो रही है, लिहाजा परीक्षाएं भी ऑनलाईन मोड से ही होनी चाहिए।
लगातार बढ़ते संक्रमण के कारण बहुत से लोगों का भी इसी तरह का अभिमत है। ऐसे में सरकार का निर्णय विश्वविद्यालयों के लिए भी एक तरह से बंधनकारी हो जाता है। यह बात अलग है कि कई विश्वविद्यालयों के कुलपति एवं अधिकारी तथा महाविद्यालयों के बहुत से प्राध्यापकगण सरकार के इस निर्णय से खुश एवं सहमत नहीं दिखते हैं।
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सवाल उठता है कि इस तरह के निर्णय से कितना बड़ा विद्यार्थी वर्ग खुश है ? क्या इस तरह की परीक्षाएं विद्यार्थियों के लिए उपयोगी हैं ? यदि हैं तो कितनी ? क्या सरकार के पास यही विकल्प बचा है ? यानि सरकार का यह निर्णय कितना जरूरी था ? इससे कितने विद्यार्थियों को लाभ होगा ? इस तरह की पद्धति से प्राप्त या हासिल डिग्री कॅरियर अथवा जीवन के लिए कितनी लाभदायक या फायदेमंद या कितनी सहायक सिद्ध होगी ? और भी कई सवाल हैं।
महत्वपूर्णं सवाल यह है कि जब कोरोना की तीसरी लहर की मारकता या तीसरी लहर में मृत्यु दर बहुत ही कम यानि एक फीसदी से भी बहुत ही नीचे है, तब परीक्षाओं को इस कदर हल्के में लेकर घर से देखकर लिखने-देने की छूट दे देना कितना जायज, जरूरी एवं सही है? डिग्री बांटने या बटोरने की इस प्रवृत्ति से किसका, कितना भला होगा ? इस तरह से पाई गई या बांटी गई उपाधि कितनी काम की है ? या कितनी काम की रहेगी ? रोजगार, स्वरोजगार, कॅरियर के लिए कितनी मददगार साबित होगी ?
उच्चशिक्षा; किसी भी व्यक्ति, देश या अर्थव्यवस्था के लिए या इनके विकास के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्णं कारक अथवा घटक होती है। वैयक्तिक से लेकर पारिवारिक, क्षेत्रीय, राष्ट्रीय तमाम तरह की प्रगति, विकास एवं संवृद्धि का सारा दारोमदार उच्चशिक्षा पर ही निर्भर करता है, और उच्चशिक्षा से ही निर्धारित होता है। इसके बावजूद सरकारें हमेशा उच्चशिक्षा की अनदेखी या अवहेलना करती रहती हैं। दुर्भाग्यजनक पहलू यह है कि सरकारों की बात को छोड़िए स्वयं विद्यार्थी, पालक वर्ग तक उच्चशिक्षा को हल्के में ही लेते हैं। नतीजा आज सबके सामने है।
बेरोजगारी या स्वरोजगार का मसला एक है। उच्चशिक्षा की कमतरी का सबसे दुखद पहलू यह है कि आज 21वीं सदी में भी पिछड़े देश एवं समाज गरीबी, कुपोषण जैसी मानवीय समस्याओं से भी उबर नहीं पा रहे हैं, और इसकी एकमात्र वजह उच्चशिक्षा की गुणवत्ता एवं गुणात्मकता की अनदेखी एवं उपेक्षा है। उच्चशिक्षा की महत्ता कॅरियर या रोजगार या स्वरोजगार के लिए जितनी महत्वपूर्णं है या होती है; उससे कहीं अधिक उपयोगी एवं सार्थक जीवन के लिए है या होती है। यह बात समझने की है।
दुनिया के तमाम विकसित देशों की विकास एवं संवृद्धि की कहानी केवल उच्चशिक्षा की गुणवत्ता एवं गुणात्मकता के साथ उच्चशिक्षा के विकास एवं प्रसार पर केन्द्रित है। इस तथ्यात्मक हकीकत की अनदेखी करते हुए हमारी सरकारें एवं समाज के लोग उच्चशिक्षा को ना जानें क्यों तव्वजो नहीं दे पाते हैं। हमारा पालकवर्ग भी इस तरह के मसलों पर कभी भी समुचित ढ़ंग से विचार नहीं करता है, यह भी एक चिंतनीय मसला है।
उच्चशिक्षा विकास एवं प्रगति के लिए ललक एवं चेतना पैदा करती है। उच्चशिक्षा जीवन के संर्घषों एवं झंझावातों से लड़ना एवं जुझना सिखती है। उच्चशिक्षा मुश्किलों से उबरने का साहस देती है। कॅरियर एवं जीवन के लिए दशा एवं दिशा का निर्माण एवं निर्धारण करती है। गुणात्मक उच्चशिक्षा सही-गलत में भेद करना सिखाती है। गुणवत्तायुक्त उच्चशिक्षा जीवन में निर्णय लेने का माद्दा देती है। युवापीढ़ी जब तक इस तरह की गंभीर विमर्शों से भागती रहेगी; यकीन मानिए हम दुनिया के साथ कदमताल मिलाकर कभी भी चल नहीं सकते हैं।
(लेखक; प्राध्यापक, अर्थशास्त्री, मीडिया पेनलिस्ट, सामाजिक-आर्थिक विश्लेषक एवं विमर्शकार हैं)
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